प्रेम और परमात्मा

*🙏❣प्रेम और परमात्मा ❣🙏*

रामानुज एक गांव में ठहरे थे और एक आदमी ने आकर कहा कि *मुझे परमात्मा को पाना है।*
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तो उन्होंने कहा कि *तूने कभी किसी को प्रेम किया है?* उस आदमी ने कहा, *इस झंझट में मैं कभी पड़ा ही नहीं। प्रेम वगैरह की झंझट में नहीं पड़ा। मुझे तो परमात्मा को खोजना है।*
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रामानुज ने कहा, *तूने कभी झंझट ही नहीं की प्रेम की?*
उसने कहा, *मैं बिल्कुल सच कहता हूं आपसे।*
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और बेचारा ठीक ही कह रहा था। *क्योंकि धर्म की दुनिया में प्रेम एक डिस-क्वालिफिकेशन है, एक अयोग्यता है।*
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तो उसने सोचा कि *अगर मैं कहूं किसी को प्रेम किया है, तो वे कहेंगे, अभी प्रेम-व्रेम छोड़, यह राग-वाग छोड़, पहले इन सबको छोड़ कर आ, तब इधर आना।*
तो उस बेचारे ने किया भी हो तो वह कहता गया कि *मैंने नहीं किया है, नहीं किया है।*
ऐसा कौन आदमी होगा जिसने थोड़ा-बहुत प्रेम नहीं किया हो?
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रामानुज ने तीसरी बार पूछा कि *तू कुछ तो बता, थोड़ा-बहुत भी कभी भी किसी को?*
उसने कहा, *माफ करिए, आप क्यों बार-बार वही बात पूछे चले जा रहे हैं? मैंने प्रेम की तरफ आंख उठा कर नहीं देखा। मुझे तो परमात्मा को खोजना है।*
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तो रामानुज ने कहा, *मुझे क्षमा कर, तू कहीं और खोज। क्योंकि मेरा अनुभव यह है कि अगर तूने किसी को प्रेम किया हो तो उस प्रेम को फिर इतना बड़ा जरूर किया जा सकता है कि वह परमात्मा तक पहुंच जाए। लेकिन अगर तूने प्रेम ही नहीं किया है तो तेरे पास कुछ है ही नहीं जिसको बड़ा किया जा सके। बीज ही नहीं है तेरे पास जो वृक्ष बन सके। तो तू जा, कहीं और पूछ।*
प्रेम का बंधन ही भक्त के लिय सशक्त माध्यम है अपने प्रभु को पाने के लिय – ऐसे कई प्रसंग हैं!
कहा भी है –
*प्रबल परम के पाले पड़कर, प्रभु को नियम बदलते देखा!*
*अपना मान भले टल जाये, पर जन का मान न टलते देखा!!*
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