रेत का घर

रेत का घर

एक गाँव में नदी के किनारे कुछ बच्चे खेलते हुए रेत के घर बना रहे थे। किसी का पैर किसी के घर को लग जाता और वो बिखर जाता! इस बात पर झगड़ा हो जाता। थोड़ी बहुत बचकानी उम्र वाली मारपीट भी हो जाती। फिर वह बदले की भावना से सामने वाले के घर के ऊपर बैठ जाता और उसे मिटा देता और फिर से अपना घर बनाने में तल्लीन हो जाया करता। यही बच्चो का काम था!

महात्मा बुद्ध चुपचाप एक ओर खड़े ये सारा तमाशा अपने शिष्यों के साथ देख रहे थे।

बच्चे अपने आप में ही मशगूल थे तो किसी ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया।

इतने में एक स्त्री आकर बच्चो को कहती है – साँझ हो गयी है तुम सब की माताएं तुम्हारा रास्ता देख रही है।
बच्चो ने चौंकते हुए देखा दिन बीत गया है! साँझ हो गयी है और अँधेरा होने को है!

इसके बाद वो अपने ही बनाये घरों पर उछले कूदे सब मटियामेट कर दिया और किसी ने नहीं देखा कि कौन किसका घर तोड़ रहा है। सब बच्चे भागते हुए अपने घरों की और चल दिए!

महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा – तुम मानव जीवन की कल्पना इन बच्चों की इस क्रीडा से कर सकते हो!
क्योंकि
तुम्हारे बनाये शहर, राजधानियां सब ऐसे ही रह जाती है और तुम्हें एक दिन यह सब छोड़कर जाना ही होती है!तुम यहां जिन्दगी की भागदौड में सब भूल जाते हो और खुद से कभी मिल ही नहीं पाते!
जबकि
जाना तो सबका तय ही है!

इसलिए
कभी भी अधिक लम्बा सोचकर समय बर्बाद नहीं करना चाहिए और वर्तमान में जीना चाहिए।
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