सचमुच संचयात्मक सोच ही संशय और लोभ की जननी है!

एक बहुत धनी व्यापारी था। उसने बहुत धन संपत्ति इकट्ठा कर रखी थी। उसका एक नौकर था संभु। जो अपने वेतन का एक बड़ा हिस्सा गरीबों की मदद में खर्च कर देता था। व्यापारी रोज उसे धन बचाने की शिक्षा देता। लेकिन संभु पर कोई असर नहीं होता था।

इससे तंग आकर एक दिन व्यापारी ने संभु को एक डंडा दिया और कहा कि जब तुझे अपने से भी बड़ा कोई मूर्ख मिले तो इसे उसको दे देना।

इसके बाद व्यापारी अक्सर उससे पूछता कि कोई तुझसे बड़ा मूर्ख मिला?

संभु विनम्रता से इनकार कर देता। एक दिन व्यापारी बीमार हो गया। रोग इतना बढ़ा कि वह मरणासन्न हो गया।

अंतिम समय उसने संभु को अपने पास बुलाया और कहा कि अब मैं इस संसार को छोड़कर जाने वाला हूँ।
संभु ने कहा, “मालिक मुझे भी अपने साथ ले चलिए।”
व्यापारी ने प्यार से डांटते हुए कहा, “वहां कोई किसी के साथ नहीं जाता।”

संभु ने फिर कहा, ”फिर तो आप धन-दौलत, सुख- सुविधा के सामान जरूर ले जाइए और आराम से वहां रहिएगा।”

व्यापारी ने कहा, ”पगले! वहां कुछ भी लेकर नहीं जाया जा सकता। सबको अकेले और खाली हाथ ही जाना पड़ता है।”

इस पर संभु बोला, “मालिक! तब तो यह डंडा आप ही रखिये। जब कुछ लेकर जाया नहीं जा सकता। तो आपने बेकार ही पूरा जीवन धन दौलत और सुख सुविधाओं को एकत्र करने में नष्ट कर दिया। न तो दान पुण्य किया, न ही भगवान का भजन। इस डंडे के असली हकदार तो आप ही हो।”

सचमुच संचयात्मक सोच ही संशय और लोभ की जननी है! इसलिय अधिक धन और साथ ना ले जा सकने वाली चीजों के संचय का लोभ नहीं करना चाहिए क्योंकि अंत समय में मनुष्य के साथ कुछ नहीं जाता!
🙏🏾🙏🏼🙏 सुप्रभात🙏🏻🙏🏿🙏🏽




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