सम्यक द्रष्टि- तेरे साथ कुछ नही जायेगा

सम्यक द्रष्टि- तेरे साथ कुछ नही जायेगा

एक बहुत प्रभावशाली, बुद्धि और वैभव से संपन्न राजा था! आस-पास के राजा भी समय-समय पर उससे परामर्श लिया करते थे! एक दिन राजा अपनी शैया पर लेेटे-लेटे सोचने लगा, मैं कितना भाग्यशाली हूं! कितना विशाल है मेरा परिवार! कितना समृद्ध है मेरा अंत:पुर! कितनी मजबूत है मेरी सेना! कितना बड़ा है मेरा राजकोष! ओह! मेरे खजाने के सामने कुबेर के खजाने की क्या बिसात! मेरे राजनिवास की शोभा को देखकर अप्सराएं भी ईर्ष्या करती होंगी! मेरा हर वचन आदेश होता है! राजा कवि हृदय था और संस्कृृत का विद्वान था!

उन्होंने अपने इन्हीं भावों को शब्दों में पिरोना शुरू किया! तीन चरण बन गए, लेकिन चौथी लाइन पूरी नहीं हो रही थी! जब तक पूरा श्लोक नहीं बन जाता, तब तक कोई भी रचनाकार उसे बार-बार दोहराता है! राजा भी अपनी वे तीन लाइनें बार-बार गुनगुना रहा था!

चेतोहरा: युवतय: स्वजनाऽनुकूला:,
सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च भृत्या:
गर्जन्ति दन्तिनिवहास्विरलास्तुरंगा:
यानी मेरी चित्ताकर्षक रानियां हैं, अनुकूल स्वजन वर्ग है, श्रेष्ठ कुटुंबी जन हैं! कर्मकार विनम्र और आज्ञापालक हैं! हाथी, घोड़ों के रूप में विशाल सेना है!

लेकिन बार-बार गुनगुनाने पर भी चौथा-चरण बन नहीं रहा था!
संयोग की बात है कि उसी रात एक चोर राजमहल में चोरी करने के लिए आया था! मौका पाकर वह राजा के शयनकक्ष में घुस गया और पलंग के नीचे दुबक कर कर बैठ गया!

चोर भी संस्कृत भाषा का विज्ञ और आशु कवि था! समस्यापूर्ति का उसे अभ्यास था! राजा द्वारा गुनगुनाए जाते श्लोक के तीन चरण चोर ने सुन लिए थे! राजा के दिमाग में चौथी लाइन नहीं बन रही है! यह भी वह जान गया लेकिन तीन लाइनें सुन कर उस चोर का कवि मन भी उसे पूरा करने के लिए मचलने लगा।

भावातिरेक में वह भूल गया कि वह चोर है और राजा के कक्ष में चोरी करने घुसा है!

अगली बार राजा ने जैसे ही वे तीन लाइनें पूरी कीं! चोर के मुंह से चौथी लाइन निकल पड़ी!
और वह इस प्रकार थी –
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सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥
यानी राज्य, वैभव आदि सब तभी तक है, जब तक आँखें खुली हैं। आंख बंद होने के बाद कुछ नहीं है। अत : किस पर गर्व कर रहे हो?

चोर की इस एक पंक्ति ने सचमुच में राजा की आंखें खोल दीं और उसे सम्यक् दृष्टि मिल गई!

वह चारों ओर विस्फारित नेत्रों से देखने लगा कि ऐसी ज्ञान की बात किसने कही? कैसे कही?

उसने आवाज दी कि पलंग के नीचे जो भी है, वह मेरे सामने उपस्थित हो!

चोर सामने आ कर खड़ा हुआ फिर हाथ जोड़ कर राजा से बोला – हे राजन ! मैं आया तो चोरी करने था! पर आप के द्वारा पढ़ा जा रहा श्लोक सुनकर यह भूल गया कि मैं चोर हूं। मेरा काव्य प्रेम उमड़ पड़ा और मैं चौथे चरण की पूर्ति करने का दुस्साहस कर बैठा! हे राजन ! मैं अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर दें।
राजा ने कहा, तुम अपने जीवन में चाहे जो कुछ भी करते हो, उससे मुझे कोई सरोकार नहीं है! इस क्षण तो आप मेरे गुरु हो क्योंकि आपने मुझे जीवन के यथार्थ का परिचय कराया है!
आंख बंद होने के बाद कुछ भी नहीं रहता – यह कह कर तुमने मेरा सत्य से साक्षात्कार करवा दिया!*
इसलिय गुरु होने के कारण तुम मुझसे जो चाहो मांग सकते हो!

चोर की समझ में कुछ नहीं आया लेकिन राजा ने आगे कहा -आज मेरे ज्ञान की आंखें खुल गईं। इसलिए शुभस्य शीघ्रम् – इस सूक्त को आत्मसात करते हुए मैं शीघ्र ही संन्यास लेना चाहता हूं! राज्य अब तृण के समान प्रतीत हो रहा है! तुम यदि मेरा राज्य चाहो तो मैं उसे भी सहर्ष देने के लिए तैयार हूं!

चोर बोला, राजन! आपको जैसे इस वाक्य से बोध पाठ मिला है, वैसे ही मेरा मन भी बदल गया है। मैं भी संन्यास स्वीकार करना चाहता हूं।

राजा और चोर दोनों संन्यासी बन गए।

एक ही पंक्ति ने दोनों को स्पंदित कर दिया। यह है सम्यक द्रष्टि का परिणाम।

जब तक राजा की दृष्टि सम्यक् नहीं थी, वह धन – वैभव, भोग-विलास को ही सब कुछ समझ रहा था!* ज्यों ही उनके आंखों से मायावी रंगीन चश्मा उतरा – दृष्टि सम्यक् बनी कि पदार्थ पदार्थ हो गया और आत्मा-आत्मा!! यानी नाशी और अविनाशी का साक्ष्यातकार हो गया!

इसलिय हमारा सम्बन्ध उस शाश्वत शक्ति से होना चाहिय जो था, है और हमेशा रहेगा! यही समय के महापुरुष हमें बार-बार समझाते हैं!




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