सुख कैसे मिले?

सुख कैसे मिले?

एक व्यक्ति के पास बहुत धन था। इतना कि अब और धन पाने से कुछ सार नहीं था। जितना था, उसका भी उपयोग नहीं हो पा रहा था। मृत्यु समीप आने लगी थी। न बेटे थे, न बेटियां थीं, कोई पीछे न था और जीवन धन बटोरने में बीत गया था।

वह तथाकथित महात्माओं के पास गया कि मुझे कुछ आनंद का सूत्र दो।
महात्मा, पंडित, पुरोहित, सब के द्वार खटखटाए। खाली हाथ लौटा।

फिर किसी ने कहा कि एक साधू को हम जानते हैं, शायद वही कुछ कर सके। उनके ढंग जरूर अनूठे हैं; इसलिए चौंकना मत।

उनके रास्ते उनके निजी हैं; उनकी समझाने की विधियां भी थोड़ी बेढब होती हैं। मगर अगर कोई न समझा सके, तो *जिनका कहीं कोई इलाज नहीं है, उस तरह के लोगों को हम वहां भेज देते हैं और उनके लिए वहाँ सुनिश्चित उपाय है।

उस धनी व्यक्ति ने एक बड़ी पोटली भरी हीरे-जवाहरातों से और पहुंच गया साधू के पास।

साधू बैठे थे एक झाड़ के नीचे। धनी व्यक्ति ने पोटली रख दी उनके सामने और कहा कि इतने हीरे-जवाहरात मेरे पास हैं, मगर सुख का कण भी मेरे पास नहीं। मैं कैसे सुखी होऊं?

साधू ने आव देखा न ताव, उठाई पोटली और भागे!
वह व्यक्ति तो एक क्षण समझ ही नहीं पाया कि ये क्या हो रहा है!

महात्मागण तो ऐसा नहीं करते! एक क्षण तो ठिठका रहा, अवाक! फिर उसे होश आया कि इस साधू ने तो लूट लिया, मारे गए, सारी जिंदगी भर की कमाई साधु ले भागा!

हम सुख की तलाश में आए थे और ज्यादा दुःखी हो गए। व्यक्ति भागा, चिल्लाया कि लुट गया, बचाओ ! साधु चोर है, बेईमान है, भागा जा रहा है!

साधु ने पूरे गांव में उस व्यक्ति को चक्कर कटवाया। साधू का गांव तो जाना-पहचाना था, सारे गली-कूंचे की पहचान थी, इधर से निकले, उधर से निकल जाए।

भीड़ भी पीछे हो ली- भीड़ तो साधू को जानती थी कि जरूर कोई विधि होगी! क्योंकि पूरा गांव तो साधू से परिचित था, उसके ढंगों से परिचित था। धीरे-धीरे आश्वस्त हो गया था कि वह जो भी करे, वह चाहे कितना बेबूझ मालूम पड़े लेकिन भीतर कुछ राज होता है।

लेकिन उस धनी व्यक्ति को तो कुछ पता नहीं था। वह पसीना-पसीना हो चला था क्योंकि जीवन मे कभी इतना भागा भी नहीं था! इतना, थका-मांदा; साधू उसे भगाता हुआ, दौड़ाता हुआ, पसीने से लथपथ कराता हुआ वापिस अपने झाड़ के पास लौटा लाया। जहां उसका घोड़ा खड़ा था। साधु ने पोटली वहीं घोड़े के पास लाकर पटक दी और स्वयं झाड़ के पीछे छिप कर खडे हो गए।

वह व्यक्ति लौटा, पोटली नीचे पड़ी थी, घोड़ा खड़ा था उसने पोटली उठा कर छाती से लगा ली और कहा कि हे! परमात्मा ! तेरा बहुत बहुत धन्यवाद! आज मुझ जैसा सुखी व्यक्ति इस दुनिया में और कोई भी नहीं क्योंकि मुझे मेरा धन वापिस मिल गया!

साधू वृक्ष के पीछे से झांकर कहा : कुछ सुख मिला?
यही राज है।

यही पोटली पहले तुम्हारे पास थी! इसी को लिए तुम यहां वहाँ लिय घूम रहे थे और सुख का कोई पता नहीं था और अब भी यही पोटली वापिस तुम्हारे हाथ में है; लेकिन बीच में फासला हो गया! थोड़ी देर को पोटली तुम्हारे हाथ में नही थी! थोड़ी देर को पोटली से तुम वंचित हो गए थे! और अब तुम कह रहे हो- हे प्रभु, धन्यवाद तेरा कि आज मैं आह्लादित हूं! आज पहली बार आनंद की थोड़ी झलक मिली।

मुझे चोर और बेईमान कहते तुमको शर्म नहीं आयी! बैठो घोड़े पर और भाग जाओ! नहीं तो मैं पोटली फिर छीन लूंगा। रास्ते पर लगो ! रास्ता तुम्हें मैंने बता दिया।

हम सबके हालत भी यही हैं कि अनमोल जीवन की कभी भी जीते जी कदर नहीं करते! इसका मूल्य का पता तबतक नहीं चलता जब तक कि इसको गंवाते नहीं!

जो हमें स्वांसें मिली हैं; उसकी हमारे लिय कोई कदर नहीं है। जो खो गया, उसके लिए हम रोते हैं! जो खो गया, हमको उसका अभाव खलता है और उस धनी व्यक्ति की तरह हम महपुरुषों के इशारे को नजरंदाज कर देते हैं!
कहा भी है कि –
मानुष जनम अनमोल रे, मिट्टी मे ना रोल रे!
अब जो मिला है, फ़िर ना मिलेगा, कभी नहीं, कभी नहीं रे!!




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