सुलझे हुए संस्कारो वाली

सुलझे हुए संस्कारो वाली

“बिटिया कुछ है क्या खाने को”

दोपहर तीन बजे के आसपास रामेश्वर बाबू ने बहु के कमरे में आवाज लगाते हुए कहा

“ये भी कोई वक्त है खाने का और अभी ग्यारह बजे दिया था ना दूध वाला दलिया फिर अब तीन बजे है जो रोटी सब्जी बनाई थी खत्म हो गई है। और आपको कोई काम तो है नहीं सिवाय खाना खाने के।

रसोई है या कोई फैक्ट्री जो आपके लिए चौबीस घंटे चलती रहेगी। जाइए शाम को देखेंगे अभी मेरा फेवरेट सीरियल आ रहा है। ये कहते हुए बहु ने नजरें फिर से टीवी पर टिका दी।

रामेश्वर बाबू चुपचाप वहां से अपने कमरे की और बढ़ गये। ये सब कुछ वहां झाड़ू पोंछा बर्तन का काम करने वाली सुधा देख रही थी। वह मन ही मन सोचने लगी कि कहने को इतना बड़ा बंगला है। बड़ी बड़ी गाडियां हैं। पैसा है, मगर इतने बड़े बंगले पैसे होने के बावजूद दिल बहुत छोटा है इनका। जो अपने घर के पिता तुल्य ससुरजी की सेवा नहीं कर सकते, कम से कम उन्हें भूखे पेट तो मत रखो। काश… अगर मेरे ससुर जी होते, तो मैं पिता की भांति उनकी सेवा करती।

काम करते करते, अचानक उसे स्मरण हुआ, ना जाने कितने फल और बादाम काजू डायनिंग टेबल पर पड़े-पड़े सड़ते रहते है। अधिकतर बासी होने पर फेंक दिए जाते है। घर के बच्चे उन्हें देखते तक नहीं है क्योंकि उन्हें फ्रेश चीजें खाने का शौक है। उसपर आजकल वो क्या कहते हैं, हां जंक फ्रूड। वह तो उन चीजों के शौकीन है। ये फल मेवे वह देखकर अनदेखा कर देते हैं।

साहब मालकिन को जहां अपने काम और किटी पार्टी से फुर्सत नहीं है तो वह क्या खाएंगे और क्या देखेंगे। बचे बेचारे बुजुर्ग दादाजी तो उनका मुंह तो बिना दांतों की बस्ती है उनकी दाल तो खिचड़ी-दलिया से ही गल सकती है तो वह क्या खाएंगे फल मेवे।

तभी कुछ सोचते हुए सुधा का चेहरा खिल उठा। उसने एक मुट्ठी मेवा सिलबट्टे पर पीसे और जरा से दूध में एक पके केले के साथ मसलकर बुजुर्ग रामेश्वर बाबू को पकड़ा दिए।

बोली बाबूजी-“चुपचाप खा लीजिए आपको भूख लगी है ना”

अब प्यासे को थोड़ा सा पानी मिल जाएं तो वो अमृत समान होता है। बुजुर्ग रामेश्वर बाबू भीगी हुई पलकों को साफ करते हुए तेजी से खाने लगे। उन्हें संतुष्टि से खाते हुए देखकर सुधा को भी संतुष्टि मिल रही थी।

ऐसे में अब ये रोज का नियम हो गया। सुधा रोज ऐसे व्यंजन, दोपहर में टीवी से चिपकी बहू की नज़र बचाकर, बुजुर्ग रामेश्वर बाबू को दे देती। कभी आते जाते बच्चे देख लेते, तो सोचते दादाजी की आंखें कितनी कमजोर हो गई है, जो मम्मी की जगह कामवाली से ना जाने क्या-क्या माँगकर खाते रहते है।

वहीं दूसरी ओर घर की बहु ये सोचकर खुश होती की मेरी डांट डपट से बूढ़े पिताजी काबू में रहते हैं। घर का बेटा पिताजी की सुधरती सेहत देखकर सोचता, कि उसकी पत्नी अपने ससुरजी का भरपूर ख्याल रखती है।

घर की कामवाली सुधा सोचती है, उसकी तो नौकरी भी यही है और जिन्दगी भी यही है। झाड़ू-बरतन करते-करते, जाने कब सांसें साथ छोड़ जाएं। अपने ससुरजी की सेवा करने का सौभाग्य तो उसे मिला नहीं। तो क्यों ना यहां घर के बुजुर्ग की सेवा करके कुछ पुण्य कमा ले।

वहीं बुजुर्ग रामेश्वर बाबू सोचते की, अब सोचना-समझना क्या है, दिन ही तो काटने है। भूखे रहकर मरने से अच्छा, आखिरी वक्त में जो सेवा और सम्मान दे रहा है ले लो। वह अक्सर सुधा को आशिर्वाद देते हुए सोचते, अगले जन्म में भगवान मुझे अमीर बनाना चाहें मत बनाना। बस बेटी देना या बहु देना तो ऐसे सुलझे हुए संस्कारों वाली सुधा जैसी देना !

जय श्री राम

शुभरात्री




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