गुरु आज्ञाकारी भक्त का स्वभाव

गुरु आज्ञाकारी भक्त का स्वभाव

गीता में भगवान श्रीकृष्ण जी अर्जुन को समझाते हैं कि आत्मज्ञानी व्यक्ति का सबसे पहला गुण है कि उसमें संसार के सारे ही जीवित प्राणियों के प्रति सच्चा प्रेम और सेवाभाव होना चाहिए।
स्वयं के भीतर सच्चे प्रेम के बीज का रोपण ही दुनिया की सारी समस्याओं और शान्ति का समाधान है। कोई आत्मज्ञान लेकर स्वयं को ज्ञानी मानता है लेकिन, वह कह कुछ रहा है और कर कुछ रहा है, ऐसा करके चाहे जितनी चालाकियांँ कर ले लेकिन, हृदय में विराजमान अविनाशी शक्ति के आगे उसकी एक नहीं चलेगी क्योंकि वो पूर्ण सत्य का निर्देशक है। उसे कभी-कभी कुछ नाट़्य भी करना पड़ता है!

लेकिन, चूंकि वह सिर्फ नाट़्य होता है तो कोई कटुता नहीं उपजती। समस्या तब पैदा होती है जब कुछ लोग आत्म ज्ञान के सिद्धान्तों को बढ़ा चढ़ा कर बखान करने लगते हैं और वही लोग उसका फायदा उठाने लगते हैं।

गीता की शुरुआत ही संन्यास की परिभाषा से होती है। ऐसी क्रिया जो स्वार्थ रहित हो। वही बात दूसरे रूप में कही गई है।
भगवान श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि जब तक मन की लालसायें शान्त नहीं होती तब तक हमें हमारा कर्म करना ही होगा।

अर्जुन वही प्रश्न पूछता है जो हमारे दिमाग में हैं। वह श्रीकृष्ण से कहता है कि मन की चंँचलता सच्चा प्रेम करने में मुख्य बाधा है। इसमें इतनी उथल-पुथल और न झुकने की प्रवृत्ति है कि इसे काबू करने की बजाय हवा को काबू करना आसान है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि मन को नियमित ध्यान के अभ्यास से,”नाम-सुमिरण के अभ्यास करके मन को काबू किया जा सकता है। यदि नाकाम रहे तो भी आपका बैंक बैलेंस बना रहेगा।

यह भौतिक बैंक बैलेंस नहीं है कि आप चले गए तो किसी और ने उस पर कब्जा कर लिया।

आत्मज्ञानी विद्वान से श्रेष्ठ होता है। विद्वान को बहुत मौखिक ज्ञान हो सकता है पर सम्भव है उसे अपने स्वांँसों के भीतर की शक्ति की पहचान न हो।

श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तुम योगी बनो और ध्यान के अभ्यास से मन को प्राणों में रमण करने वाली शक्ति के साथ एकाकार करके स्वयंँ को जानो। तभी हृदय में विराजमान ईश्वर के सानिध्य में शान्ति के अनुभव से मनुष्य जीवन सफल होता है।

  • श्री हंस जी महाराज



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