जब जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा अर्जुन कर लेते हैं कि – *”सूर्यास्त तक नहीं मारा, तो अग्नि समाधि ले लूंगा!”*

जब जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा अर्जुन कर लेते हैं कि – *”सूर्यास्त तक नहीं मारा, तो अग्नि समाधि ले लूंगा!”*

तो, आचार्य द्रोण कमलव्यूह के अंदर जयद्रथ को छुपा देते हैं, जिसका आकर 32 कोस का था। जयद्रथ की सुरक्षा में बड़े-बड़े वीर तैनात थे।

भगवान कृष्ण बोले, *अर्जुन तुम रास्ता साफ करो। मैं रथ ले चलता हूँ। संध्या हो आई, अब भी 12 कोस रह गया।*

कृष्ण रथ से उतर गये! अर्जुन ने पूछा, *”केशव यह क्या?”*

कृष्ण ने कहा – *अश्व थक गये हैं।*
आगे बोलते हुए भगवान कृष्ण जो बोले वह ध्यान देने योग्य है-
*”अर्जुन कदाचित तुमने मेरे उपदेश पर ध्यान नहीं दिया”, जो मैंने युद्ध के शुरू में दिया था! तुम प्रतिज्ञा करने वाले होते कौन हो? तुम तो निमित्त मात्र हो, यदि तुम प्रतिज्ञा न किये होते तो अब तक जयद्रथ को मार देते।*

*तुम्हारा ध्यान एक तरफ सूर्य पर है, दूसरी तरफ जयद्रथ पर। इसलिये तुम्हारे निशाने चूक रहें हैं।* ऐसा लक्ष्य तय कर दिये कि *असफल होने पर तुम्हें ही विनष्ट कर देगा! यह डर ही तुम्हें हरा देगा।”*

भगवान के वचन बड़े सारगर्भित हैं। मुझे नहीं लगता *आज तक किसी ने इतनी सुंदर यथार्थ बात पर ध्यान दिया हो! वर्तमान में भी यह उतना ही सत्य है जितनी तब थी!*

*स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।*
*धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥*
अपने खुद के धर्म से तुम्हें हिलना नहीं चाहिये क्योंकि न्याय के लिये किये गये युद्ध से बढकर एक क्षत्रिय के लिये कुछ नहीं है।

*सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।*
*ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥*
सुख दुख को, लाभ हानि को, जय और हार को एक सा देखते हुए ही युद्ध करो। ऐसा करते हुए, तुम्हें पाप नहीं मिलेगा।

*अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि।*
*ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥*
लेकिन यदि तुम यह न्याय युद्ध नहीं करोगे, को अपने धर्म और यश की हानि करोगे और पाप को प्राप्त करोगे।

हमारे जीवन के महाभारत में भी हमारी एकाग्रता इन्ही आवेग-संवेगों के कारण भंग होती रहती है और हम जीवन लक्ष्य को भूल जाते हैं! तभी सौभाग्य से गुरु महाराजी जी पूछते हैं कि *तुमको तुम्हारी जिन्दगी कैसी लगती है?* इतना ही नहीं वे यह दावा करते हैं कि *मैं तुमको तुमसे मिला सकता हूँ!*
इसलिय *कर्ता भाव* को छोड़कर *निमित्त मात्र बनकर कर्तव्य का पालन* करते रहें! तभी हमारा जीवन बोझिल ना होकर हल्का लगने लगेगा!




Leave a Reply