जीवन का आनंद

एक बार एक सम्राट एक साधु से बहुत प्रभावित हो गए। सम्राट रोज रात को अपने घोड़े पर सवार होकर राज्य का चक्कर लगाने निकलते थे, उस समय रोज उस साधु को देखते थे।
वह साधु एक वृक्ष के नीचे अपनी मस्ती में बैठे, कभी बाँसुरी बजाते, कभी नाचते, कभी गीत गुनगुनाते और कभी चुपचाप बैठ कर आकाश के तारों को देखते रहते थे।

सम्राट जब भी घोड़े पर सवार होकर उसके पास से निकलते तो वहाँ रुक जाते।

उसकी मस्ती को देखते और फिर वहाँ से चले जाते। धीरे-धीरे उनको उस साधु को देखने में इतना रस मिलने लगा कि उसे देखते-देखते समय कब बीत जाता, उन्हें पता ही नहीं चलता। वे एक झाड़ी के पीछे दूर चुपचाप खडे रहते और उस साधु की मस्ती देखते रहते। उसकी मस्ती में ऐसे खो जाते कि खुद भी मस्त होकर घर लौटते।
यह रोज का ही सिलसिला बन गया था।

एक दिन सम्राट इतना भाव विभोर होकर उस साधु के चरणों में गिर पड़े और कहा कि, “हे गुरुदेव, मैं आपको यहाँ और नहीं रहने दूँगा। वर्षा ऋतु करीब आ रही है। यह वृक्ष है, इसके नीचे आप बारिश में कैसे रहेंगे। आप मेरे महल में चलकर मुझ पर कृपा करें। मुझे सेवा का अवसर दे।

यह सुनते ही साधु खड़े हो गए और अपनी झोली उठाई और कहा कि, “चलो।”

यह देखकर सम्राट को बहुत सदमा लगा।
सम्राट ने तो सोचा था कि मेरी बात सुन साधु कहेंगे – कैसा महल, कहाँ का महल, हम जहाँ हैं, वहीं मस्त हैं। हम महलों में नहीं जाना चाहते। हमने महलों और सभी सुख सुविधाओं का त्याग कर दिया है। सम्राट के मन में तो साधु से यह सब सुनने की अपेक्षा थी। अगर साधु ने ऐसा कहा होता तो सम्राट उनके पैरों में गिर कर कुछ और विनती कर लेते, लेकिन साधू तुरंत चलने को तैयार हो गये, तो सम्राट थोड़ा सदमे में आ गये।

उन्होंने सोचा कि कहीं मैंने गलती तो नहीं कर दी। इस आदमी ने मेरे साथ कोई चालबाजी तो नहीं की है। यह इसकी महल में घुसने की कोई तरकीब तो नहीं है। यह कहीं मेरे ऊपर ही जाल तो नहीं फेंक रहा था। मैं फालतू ही इसके चक्कर में पड़ा।

सम्राट यह सब सोच ही रहा था कि तब तक वह साधु सम्राट के घोड़े पर चढ़कर बैठ गया और उसने सम्राट को चलने के लिए कहा।

सम्राट को जिंदगी में पहली बार पैदल चलना पड़ा जबकि वह साधु बड़े मजे से घोड़े पर बैठकर जा रहा था।

सम्राट का मन शक के घेरे मे फँस गया, लेकिन सम्राट अब अपनी बात से पलट भी नहीं सकते थे। वे अपने वचन के अधीन थे। सम्राट के मन में साधु के लिए सम्मान खत्म हो चुका था।

साधु महल में ऐसी ही मस्ती में रहने लगा जैसी मस्ती में वह वृक्ष के नीचे रहते थे।

साधु वृक्ष के नीचे भी बाँसुरी बजाते थे और महल में आकर भी वह बाँसुरी ही बजा रहें थे लेकिन अब वह मखमल के गद्दे पर बैठकर बाँसुरी बजा रहे थे। यह सब देख कर सम्राट का दिल जलने लगा।
वह सोचने लगा कि मैं किसे उठा लाया, यह कोई साधु नहीं है। सम्राट से भी ज्यादा शान से वह रहता है। सम्राट को तो चिंता और फिक्र भी थी क्योंकि उन्हें अपना साम्राज्य, अपना महल, अपनी धन दौलत, सभी को संभालना था। लेकिन साधु को तो कोई चिंता ही नहीं थी। वह तो अपनी ही मस्ती में बाँसुरी बजाए, नाचे-गाये और मस्ती में भोजन करें।

6 महीने तक किसी तरह सम्राट ने बर्दास्त किया लेकिन अब बात सम्राट के सहन के बाहर हो गई थी।

एक दिन सम्राट ने साधु से कहा कि, “हे गुरुदेव मेरे मन मे एक जिज्ञासा है। मुझे जानना है कि अब मुझ में और आप में क्या फर्क है?”

साधु ने कहा कि, “फर्क जानना चाहते हो।”

सम्राट ने कहा, “हाँ, महाराज।”

साधु ने कहा कि, “तुम 6 महीने क्यों परेशान रहे। यह बात तुम उसी वक्त पूछ लेते, जब मैं तुम्हारे घोड़े पर बैठा था क्योंकि मैंने तो देख ही लिया था कि यह बात तुम्हारे मन में उसी वक्त उठ गई थी। जब मैं अपना झोला उठाकर तुम्हारे साथ चलने को राजी हुआ था उसी वक्त मैंने तुम्हारा चेहरा पढ़ लिया था। यह प्रश्न तो उस वक्त भी तुम्हारे भीतर था। अरे बुद्धू; तुमने 6 महीने तक अपना दिल क्यों जलाया। वहीं पूछ लिया होता तो, मैं झोला डाल कर फिर वही बैठ जाता। क्यों नहीं पूछा तुमने, क्या संकोच था तुम्हारे मन में? मैं प्रतीक्षा ही कर रहा था कि कब तुम मुझसे पूछोगे। ठीक है, कल सुबह मैं तुम्हें फर्क बता ही देता हूँ। लेकिन हाँ, गाँव के बाहर बताऊँगा।”

सम्राट बहुत उत्सुक थे जानने के लिए कि क्या फर्क है।

सम्राट ने सोचा कि खाना जो मैं खाता हूँ, वह भी वही खाता है। मैं जिस कमरे में रहता हूँ, उससे भी ज्यादा सुंदर कमरे में ये साधू रहते हैं। मेरा दो तीन नौकरों से काम चल जाता है लेकिन वह पूरे दिन पंद्रह- बीस नौकरों से काम करवाता है। इसकी जरूरतों का कोई अंत नहीं। कपड़े शानदार पहनते है। यह खुद ही इस महल का सम्राट मालूम पड़ते है। कम से कम महल के बाकी लोग मुझसे डरते तो हैं। इसकी आँखों में तो डर नाम की कोई चीज ही नहीं है। बस पूरे दिन बिना किसी चिंता के मस्त बाँसुरी बजाते रहते हैं। अब देखते है कि आज क्या फर्क बतलाते है। उस पूरी रात सम्राट सो नहीं पाये सुबह जल्दी से तैयार होकर वह साधु के पास पहुंच गए। वहाँ जाकर देखा कि साधु ने वही पुराने कपड़े पहने हुए थे, जो कपड़े पहन कर वह वृक्ष के नीचे बैठते थे। एक हाथ में उसका झोला और दूसरे हाथ में उसकी बाँसुरी थी। वह तैयार खड़े थे।

सम्राट ने कहा, चलें महाराज।”

फिर दोनों महल के बाहर निकल आए। चलते-चलते गाँव की नदी पार हो गई। कुछ ही देर में वह दोंनो गाँव के बाहर आ गए।

सम्राट ने पूछा, “अभी और कितना चलना है।”

साधु ने कहा, “बस कुछ देर और।”

चलते चलते सुबह से दोपहर हो गई।

सम्राट ने कहा कि, “बस, अब मुझसे और आगे नहीं चला जाएगा। जो भी कहना है, यहीं कह दो।”

साधु ने कहा कि, “मैं तो और आगे जा रहा हूँ। तुम चल रहे हो या नहीं।”

सम्राट ने कहा, “मैं कैसे चल सकता हूँ। मेरा महल, मेरी बीवी, मेरे बच्चे, मेरा धन-दौलत सब कुछ पीछे रह गया है। मैं तुम्हारी तरह फ़कीर तो नहीं हूँ, जिसे किसी चीज की फिक्र नहीं है।”

साधु ने कहा, “बस यही फर्क है तुम्हारे और मेरे बीच में। मैं कहीं भी जा सकता हूँ, तुम नहीं जा सकते हो। मैं हर परिस्थिति में खुश रह सकता हूँ, लेकिन तुम नहीं रह सकते हो। जब मैं उस वृक्ष के नीचे रहता था तब भी मस्ती से रहता था और अपनी जिंदगी के एक-एक पल को जीता था। और मैं महल चला गया, तब भी मैंने अपने जीवन के एक-एक क्षण को पूरी मस्ती और खुशी के साथ जिया। अब मैं अगर कहीं और चला जाऊँ, तब भी मैं ऐसे ही जी लूँगा। हम जिस वक्त जहाँ रहते हैं, पूरी तरीके से वही रहते हैं। हम ना तो अपने बीते हुए कल के बारे में सोच कर पश्चाताप करते हैं और ना ही भविष्य की चिंता करके अपने वर्तमान को खराब करते हैं। हम बस आज में जीते हैं क्योंकि हम समझ चुके हैं कि जीवन तो आज में हैं। जीवन तो इसी पल को जीने में हैं। बस यही छोटा सा फर्क है, तुम में और मुझ में ।

तुम्हें परिस्थितियाँ चलाती है और हम परिस्थितियों को चलाते हैं।

तुम खुश रहोगे या दुखी, यह तुम्हारे आसपास होने वाली घटनाओं पर निर्भर करता है लेकिन हमारे लिए यह घटनाएँ जिंदगी के सफर का एक हिस्सा मात्र है।

अचानक सम्राट को महसूस हुआ कि अरे यह मैंने क्या कर दिया इतने अद्भुत आदमी को नहीं पहचान पाया। 6 महीने इनके साथ सत्संग भी नहीं कर पाया। सत्संग करता भी तो कैसे मेरे मन में तो यही चल रहा था कि यह एक ढोंगी बाबा है।

तुरंत सम्राट ने साधु के पैर पकड़ लिए और बोला, “नहीं महाराज, अब मैं आपको नहीं जाने दूँगा।”

साधु ने कहा “देख मुझे कोई परेशानी नहीं है। मैं फिर से तेरे महल मे चल दूँगा लेकिन फिर तुझे परेशानी होगी।”

ऐसा सुनते ही फिर सम्राट के मन में वही विचार आया कि यह साधु तो फिर आसानी से मान गया।

साधु ने सम्राट के चेहरे की तरफ बड़ी ध्यान से देखा और फिर बोले, “लेकिन नहीं, अब मैं नहीं आऊँगा क्योंकि तू फिर नहीं सुधरेगा। फिर तुझे परेशानी होगी और तू फिर से चिंता में पड़ जाएगा। हमारा क्या हम तो सन्यासी हैं। हमारे लिए महल और जंगल सब एक जैसे हैं। हमें कोई भी समस्या नहीं है क्योंकि जिसे समस्या है, वह सन्यासी ही नहीं है। मेरी बाँसुरी जैसे महल में बजाती थी, वैसी ही जंगल में भी बजेगी और बजती ही रहेगी।”

यह कहकर वह साधू वहाँ से चले गए और सम्राट वही खडे-खडे उस साधु को जाते हुए देख रहे थे।

इस प्रसंग में एक गहरा संदेश हम सभी के लिए छुपा है।
हम ऐसा सोचते हैं कि हम भी आजादी का जीवन जी रहे हैं, पर वास्तव में हम अवचेतन मन के द्वारा चलाए जा रहे हैं। हम अवचेतन मन के गुलाम है। वह साधु वास्तव में अपने मन को चला रहा था और हमें वास्तव में हमारा मन चला रहा है।

“यदि एक बार मन सामंजस्यपूर्ण स्थिति में आ जाए तो फिर न बाहरी परिस्थितियों और वातावरण का उस पर कोई प्रभाव होगा और न ही आंतरिक अशांति होगी।




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