प्रेम और मोह में क्या अंतर है?

प्रेम और मोह में क्या अंतर है?

प्रेम निस्वार्थ होता है। मोह स्वार्थी होता है। बिना कोई अपेक्षा प्रेम दिया जाता है। प्रेम मांगा नही जाता।प्रेम मन को बेहद में रखता है। मोह में मेरापन होता है। मोह में चाहना रहती है कि मेरे से सामने वाला भी लगाव रखे मेरे उपर अटेंशन दे। मोह हद का होता है। मोह शरीर से और शरीर के सम्बंध से होता है। इसलिए शरीर को कुछ हो जाये तो मोह की वजह से मन दुख महसूस करता है।

आप किसी पर प्रेम करते हो तो आप डिटैचमेंट में हैं और आप उनके आपके साथ होने न होने से प्रभावित नही होते ना ही आप दुःख महसूस करते हो।आप बस दिल से उन्हें दुवाये देते रहते हैं – *जो जहाँ भी है खुश रहे।

मोह अटैचमेंट है, बन्धन है। बंधन चिंता कराता है। स्ट्रेस में लाता है क्योकि आपके मन की तार किसी से बंधा है। अगर वो सुखी तो आप सुखी अगर वो दुखी तो आप दुःखी।

किसी से नफरत करना भी मोह है क्योंकि आपकी मन की तार नफरत की रस्सी से जुड़ी हुई है।

प्रेम किसी को बन्धन में नहीं डालता। प्रेम खुले साफ आकाश में उड़ते मुक्त खुश पंछी का प्रतीक है।
तो मोह सोने के पिंजरे बन्द लाचार पक्षी को दर्शाता है। अर्थात आपको पक्षी से लगाव है इसलिए आपने उसे बंद करके रखा है मगर पंछी जो न उड़ पाने का गम सह रहा है वो आपको महसूस नही होता। इसलिए मोह को भावनिक अंधत्व भी कह सकते है।

प्रेम प्रकाश है जो औरो को रोशनी देता है। अगरबत्ती की तरह – जो खुद जलकर औरो को खुशबू देता है।
मोह मन का अज्ञान अंधेरा है जो इस शरीर को, धन को, मान-शान को ही सबकुछ समझता रहता है। मोहयुक्त व्यक्ति औरो को भी दर्द देता है। औरो को भी चिंता में डालता है।

तत्वदर्शी सदगुरु अपने हर भक्त से प्रेम करते हैं मगर मोह किसी मे नहीं रखते। इसलिए उनको निर्लेप कहा गया है!
वह समझाते हैं कि प्रेम से हृदय हमेशा हर्षित रहता है, प्रफुल्लित होता है और मोह से हमारा मन दुखी और बोझिल महसूस करता है।

अब हमको खुद ही सोचना है कि हमें अपने देह से और देह के सम्बन्धियो से प्रेम रखना है या मोह?

जिस किसी रिश्ते से दुःख मिल रहा हो तो – वह मोह है! और हर परिस्थिति में प्रसन्नता का अनुभव होता हो तो – वह प्रेम है।

रामायण में भी मोह के द्वारा पीड़ित को किन व्याधियों का शिकार होना पड़ता है उसका स्पष्ट उल्लेख किया गया है! जो इस प्रकार है –

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला॥
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा॥
भावार्थ:-सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है॥

प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई। उपजइ सन्यपात दुखदाई॥
बिषय मनोरथ दुर्गम नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥
भावार्थ:-यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, पित्त और कफ) प्रीति कर लें (मिल जाएँ), तो दुःखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हैं, वे ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जानता है (अर्थात्‌ वे अपार हैं)

ममता दादु कंडु इरषाई। हरष बिषाद गरह बहुताई॥
पर सुख देखि जरनि सोइ छई। कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई॥
भावार्थ:-ममता दाद है, ईर्षा (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता है (गलगंड, कण्ठमाला या घेघा आदि रोग हैं), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षयी है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है।

अहंकार अति दुखद डमरुआ। दंभ कपट मद मान नेहरुआ॥
तृस्ना उदरबृद्धि अति भारी। त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी!!
भावार्थ:-अहंकार अत्यंत दुःख देने वाला डमरू (गाँठ का) रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ (नसों का) रोग है। तृष्णा बड़ा भारी उदर वृद्धि (जलोदर) रोग है। तीन प्रकार (पुत्र, धन और मान) की प्रबल इच्छाएँ प्रबल तिजारी हैं।

जुग बिधि ज्वर मत्सर अबिबेका। कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका ॥
भावार्थ:-मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेकों बुरे रोग हैं, जिन्हें कहाँ तक कहूँ।

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि ॥
भावार्थ:-एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं, ऐसी दशा में वह समाधि (शांति) को कैसे प्राप्त करें?

उसके लिय एक मात्र उपाय बताया गया है –
रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥4॥
भावार्थ : श्री रघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते!

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुरू वैद बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥
भावार्थ ; यदि श्रीराम जी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ। सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो!
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