मन का पात्र शुद्ध कीजिए

❤️मन का पात्र शुद्ध कीजिए ❤️

एक साधु अपने एक शिष्य के साथ यात्रा को गया! मरुस्थल में मार्ग खो गया। बड़ी प्यास लगी थी। गला सूख रहा था।

किसी तरह खोज कर एक छोटा सा झरना मिल गया। बड़े प्रसन्न हुए। न केवल झरना मिला, बल्कि झरने के पास ही पड़ा एक पात्र भी मिल गया, क्योंकि उनके पास पात्र भी न था। उनके आनंद का कोई ठिकाना न रहा। उन्होंने उस पात्र में झरने का पानी भरा, लेकिन जब पीने गए तो वह इतना तिक्त और कड़वा था, जहरीला था, कि घबड़ा गए कि यह तो पीने लायक नहीं है और आगे निकल गए।

उस झरने को तो छोड़ा! जल की तलाश में निकल पड़े लेकिन पात्र को साथ ले लिया। दूसरे झरने पर जाकर पानी पीया, वह भी जहरीला था। अब तो बहुत घबरा गए कि मौत निश्चित है। जल सामने है, पी नहीं सकते। कण्ठ सूख रहा है। बेबस से फिर चलने लगे।

तीसरे झरना भी मिल गया! पात्र में जल भरा, लेकिन पानी पीया तो वह भी कड़वा था। वह बहुत हैरान और हताश हो गये पर तीसरे झरने पर एक और आदमी, एक साधु बैठा था। उससे उन्होंने कहा कि *हमें समझ नहीं आ रहा कि यह मामला क्या है।*

अपनी व्यथा उस साधु को बतायी। उस साधु उन्हें ने गौर से देखा और कहा कि *झरने का जल तो कड़वे नहीं है , जरूर तुम्हारे पात्र में कुछ खराबी होगी। क्योंकि मैं तो इन्हीं झरनों के जल पी कर जी रहा हूं। तुम झरने से सीधा पानी पीओ, इस पात्र में जल मत भरो।*

सीधा पानी पीया तो *ऐसा मीठा पानी कभी पीया ही न था।* इसका मतलब वह पात्र गंदा था। उस पात्र के संसर्ग में आते ही शुद्ध और मीठा जल भी ग्रहण करने योग्य नहीं रहता था।

यही हम सब की दुविधा है।अपना ही पात्र स्वच्छ नहीं और हम‌ दूसरों को दोषी कहते हैं।
*यदि प्रभु को पाने की चाह है, भक्ति करनी है तो अपने मन रूपी पात्र को साफ करना अति आवश्यक है। भक्ति रूपी गंगा जल तभी तो आप ग्रहण कर सकेंगे।*

*मन से तृष्णा मरी नहीं, लालच गयो, न काम!*
*विषय कोठरी भरी पड़ी, कहां विराजें श्रीराम!!*
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