माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रुधे मोय।
इक दिन ऐसा आयेगा, मैं रौंदूँगी तोय।।

हमें परमात्मा ने सर्वश्रेष्ठ मनुष्य शरीर इसलिए दिया है ताकि स्वांँसों के रहते हुए ध्यान-सुमिरण के अभ्यास से स्वयं को जानकर मनुष्य जीवन को सफल बनाया जा सके।
मिट्टी कुम्हार से बोली : “मुझे पात्र बना दो।”
कुम्हार ने कहा : क्यों?
मिट्टी बोली : ताकि मुझमें पानी रह सके और लोग अपनी प्यास बुझा सकें। इससे मेरा जीवन सार्थक होगा।

मनुष्य जीवन केवल सुख-सुविधाओं के पीछे पागल होकर बर्बाद करने के लिए ही नहीं है।
सुविधायें इस जीवन में प्रगति की सहायक हो सकती हैं, साध्य नहीं।

जीवन का लक्ष्य बहुत ऊंँचा है। अगर छोटी-मोटी सुविधाओं को ही जीवन का सार मान लिया तो अपने इन स्वांँसों के विपुल वैभव को मानव कौड़ियों के भाव गंँवा बैठेगा। इस शरीर रूपी मिट्टी के भीतर स्वांँस आ रहे हैं और जा रहे हैं जिसकी बदौलत इस मिट्टी रुपी शरीर का अस्तित्व है।

इन स्वांँसों के होते अगर इस मिट्टी को पात्र बनाकर हृदय की प्यास नहीं बुझाई तो मनुष्य जीवन अधूरा रहा।
आइंस्टीन ने कहा है कि मेरा अंत:करण कितना छटपटाता है कि मैं कम से कम इतना तो दुनिया को दे सकूंँ – जितना मुझे प्रकृति से विरासत में मिला है।
मनुष्य शरीर के साथ मिली शक्तियों का सही उपयोग तब होगा – जब जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य अपनी आत्मा की पहिचान समय के सद्गुरु की शरण में जाकर आत्म-ज्ञान को जानें! उसका अभ्यास करें! ताकि यह मानव जीवन सार्थक हो जाए!

संत हमेशा यही बतलाते हैं कि स्वयं को जानकर आत्मा के परम-आनन्द के अनुभव से हृदय की प्यास बुझ सकती है।
ध्यान-सुमिरण के अभ्यास से जब भी आप स्वयं अपने अविनाशी को देखेंगे तो आपको विशुद्ध आनन्द की अनुभूति होगी।
सारे संँसाधनों के बावजूद, अगर स्वांँसों के होते हुय, जीते जी स्वयं को नहीं जाना तो फिर इतनी कड़ी मेहनत का क्या अर्थ निकला?*

इसलिय समय के सद्गुरु के मार्गदर्शन में उनके द्वारा प्रदत्त विधि का नियमित अभ्यास करना ही हमारी प्रार्थमिकता होनी चाहिय!
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