मानस रोग – काम, क्रोध, मद और लोभ!

मानस रोग – काम, क्रोध, मद और लोभ!

सांसारिक ज्ञान हमें बचपन से ही हमारे सांसारिक गुरुजनों ने दिया!
जैसे उन्होंने हमें सागर, महासागर के बारे में विस्तार से ज्ञान दिया और उनके द्वारा मिलने वाले लाभ हानी की जानकारियां भी मिली!
लेकिन हम जब बड़े हुए तो हमको संतों महात्माओं के द्वारा भवसागर के होने और उसे पार करने की बातें भी तरह तरह से बताई गयी; और हमने कभी इसे संजीदगी से नहीं लिया – बस, कभी काल्पनिक रूप में इसके अस्तित्त्व को स्वीकार किया और कभी इसे नकार भी दिया!

इसी प्रकार हम सभी बचपन से लेकर अपने जीवन की अन्तिम अवस्था तक किसी न किसी बीमारी का सामना करते आ रहे हैं और जब डाक्टरों के पास जाते हैं तो उन बीमारियों से मुक्क्ति पाने के लिय सलाह और दवा भी लेते हैं! इस तरह हमें कई बीमारियों के बारे में भी पता चलता है! चिकित्सा जगत के विशेषज्ञ सतत शोध में लगे हुए हैं कि इन्सान के बीमार होने के मूल कारण क्या हैं!

हमारे ऋषि मनीषियों ने पुरातन काल से मन, वचन और कर्म की समीक्षा की है! और रामायण में मानस रोग के बारे में बतलाया गया है और उसका निदान भी बताया है!

मुझे इस मानस रोग का उल्लेख पढने को मिला; रामायण का यह अनमोल प्रसंग आपके साथ शेयर किया जा रहा है!

कहावत है कि मन दुरुस्त तो तन दुरुस्त!

गरुड़जी और काकभुशुण्डि जी बीच का यह सम्वाद है जिसमें गरुड़जी ने सात प्रश्न किए थे।
छ: प्रश्नों के उत्तर देने के बाद अब मानस रोग संबंधित सातवें प्रश्न का उत्तर काकभुशुण्डिजी दे रहे।

मानस रोग कहहु समुझाई। तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई॥
तात सुनहु सादर अति प्रीती। मैं संछेप कहउँ यह नीती॥

गरुड़जी काकभुशुण्डि जी से कहते हैं कि अब मानस रोगों को समझाकर कहिए। आप सर्वज्ञ हैं और मुझ पर आपकी कृपा भी बहुत है।
काकभुशुण्डिजी ने कहा- हे तात अत्यंत आदर और प्रेम के साथ सुनिए। मैं यह नीति संक्षेप से कहता हूँ॥
काकभुशुण्डिजी कह रहे हैं कि व्यक्ति के दुख का कारण कोई अन्य व्यक्ति या वस्तु नहीं है। मानस रोग ही दुख के कारण हैं।

फिर ये रोग अथवा ब्याधि क्या हैं? तो वे कहते हैं -“मोह सकल ब्याधिन कर मूला”। अर्थात मोह (अज्ञान ) से ही सारे मानस रोग उत्पन्न होते हैं।

शारीरिक रोगों का प्रमुख कारण शास्त्रों के अनुसार “प्रज्ञापराध” है। यानी हमारी श्रेष्ठ बुद्धि जिस प्रकार से हमारे रहन सहन, खान पान को चाहती है, हम जब उसकी अवहेलना करके निषिद्ध आचरण करते हैं तो शरीर में वात, पित्त, कफ का संतुलन बिगड़ जाता है और हम बीमार हो जाते हैं!

मानस रोगों में वात, पित्त, कफ की तुलना काम, क्रोध, लोभ से की गई है।

शारीरिक स्वास्थ्य के लिए वात -पित्त -कफ को एक समुचित अनुपात में ही रहना चाहिए।
यह तीनों बराबर बराबर मात्रा में भी नहीं होने चाहिए।
उस स्थिति में व्यक्ति का जीवित रहना भी मुश्किल है।
बराबर की स्थिति को सन्निपात कहते हैं, जो असाध्य है।

कफ की अतिशय बहुलता में जब पेट से कंठ तक कफ भर जाता है तो व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।
वात की बहुलता दर्द और ज्वर पैदा करती है।
पित्त की बहुलता से ऐसीडिटी पैदा होती है, ज्वर पैदा होता है तथा छाती आदि में जलन होती है। क्रोध यही करता है।*

यह भी विचारणीय है कि कफ और पित्त गतिशील नहीं होते!
लेकिन वात (वायु) गतिशील होता है। पूरे शरीर में इसका संचार रहता है। वात ही पित्त और कफ को शरीर के विभिन्न हिस्सों में लेजाकर, एकत्र करता है और पीड़ा कष्ट पैदा करता है।
वात की ही तरह काम अथवा कहें कि कामनाएँ ही मुख्य रोग है। इसी से लोभ और क्रोध भी उत्पन्न होते हैं।

एक सिद्धांत है कि शारीरिक रोगों के पीछे बहुधा कोई मानसिक कारण अवश्य होता है।
चलते चलते किसी जगह फिसल जाना, गड्ढे में गिर जाना, एक्साडेन्ट हो जाना, किसी जानवर द्वारा काट लेना या सींग से लात से प्रहार कर देना- इन सबके पीछे मानसिक असावधानी होती ही है।

क्रोध से पित्त बढ़ता है। क्रोधी व्यक्ति के अनुभव में पित्त जनित बीमारियॉं अवश्य आती हैं।

लोभी व्यक्ति नानाप्रकार की कामनाएँ करता है। जब वे कामनाएँ पूर्ण नहीं होती हैं तो एक कुंठा उत्पन्न करती है; जिससे शरीर में वात रोग पैदा होता है। कभी कभी व्यक्ति अप्राप्य वस्तुओं की कामना करता है तो उसके यह मनोरथ ही कुछ समय बाद उसको कुछ न कुछ ग़लत करने को विवश कर देते हैं। व्यक्ति पतन की ओर जाने लगता है।

यहॉं तो पहला क़दम की “विषय मनोरथ” रोग का कारण बताया गया है।

कहते हैं कि –
ममता तो मानो दाद है और ईर्ष्या खुजली।
जैसे खाज खुजाने में मजा आता है ऐसे ही कल्पना में किसी के प्रति ईर्ष्या रखने में भी आता है। दाद और खाज खुजलाने में तो मजा देते हैं लेकिन परिणाम में बहुत कष्टकारी होते हैं!

हर्ष विषाद को गले में होने वाला कण्ठमाला रोग (थायराइड) को बताया है।
इसमें गले में गॉंठों की माला सी बन जाती है। सामान्यतया जो विषाद या हर्ष हृदय में होता है, उसके पीछे कोई विशेष घटना या उपलब्धि कारण होती है। लेकिन जो व्यक्ति छोटी छोटी बात पर पल पल में हर्ष विषादादि का अनुभव करे तो उसमें कोई गम्भीरता नहीं है, वह तो रोग की तरह है।

क्षय रोग छाती के फेफड़ों में होता है। जिस व्यक्ति की छाती दूसरे किसी की उपलब्धि, विभूति या उन्नति देखकर जलती है, काकभुशुण्डिजी ने उसे क्षय रोग बताया है।

व्यक्ति का दुष्ट स्वभाव और मन की कुटिलता कोढ़ के समान है। यह रोग उस व्यक्ति को ही गलाकर उसमें दुर्गंध पैदा करता है।

अहंकार को डमरुआ, जोड़ों के दर्द का रोग बताया है। किसी भी जोड़ को झुकाने में दर्द होता है। घुटने मुड़ने में कष्ट देते हैं। अहंकारी व्यक्ति को झुकने में या अपनी अकड़ के बिरुद्ध मुड़ने में कष्ट होता है।

जब बात रोग के कारण नसों में पीड़ा होने लगती है, उसे नेहरुआ अर्थात शायटिका कहते हैं।
काकभुशुण्डि जी दम्भ, कपट, मद और मान को नस नस में पीड़ा देने वाला शायटिका रोग बता रहे हैं।

पेट में विषैला पानी भर जाता है उसे जलोदर कहते हैं। पेट फूल जाता है। तृष्णा को जलोदर की संज्ञा दी है जो तृप्त नहीं होती फूलती रहती है। लोकेषणा, वित्तेषणा, पुत्रेषणा यह तीन एषणाएँ मानो कि बड़ा भारी तिजारी बुखार हैं जो कभी कभी एक या दो दिन छोड़कर भी आता है।
इसी तृष्णा के कारण उपजे विकारों से आतों में पानी भर जाता है और हर्निया जैसे कष्टदायी रोग जन लेवा भी बन जाते हैं!

“जुग बिधि ज्वर मत्सर अविवेका”:
-बुखार के दो भेद बताए गए हैं।
आयुर्वेद संहिता में इसका विस्तार उपलब्ध होगा। माधव निदान में एक माहेश्वर ज्वर बताया है दूसरा वैष्णव ज्वर। यह दोनों ज्वर हृदय में मत्सर और अविवेक या विचारहीनता के रूप में रहते हैं।

अब काकभुशुण्डिजी बड़ी गम्भीर बात कह रहे हैं।
संसार में तो लोग एक ही रोग से मर जाते हैं लेकिन ये मानस रोग तो इतने सारे हैं कि गिनाए नहीं जा सकते।
इनमें बहुत से असाध्य रोग भी हैं और जीव इस धरा पर निरंतर इनसे पीड़ित रहते हैं!

“पीड़हिं संतत जीव”।
इतना ही नहीं जीव जिस शरीर में भी जाएगा; उस शरीर में भी यह रोग साथ जाऐंगे।

मतलब यह कि हमारा जो जन्म से स्वभाव है, रुचि है उसमें हमारे पूर्व कृत्यों के आधार पर बने इन मानस रोगों की विशेष भूमिका है।
इसके लिए हमारे इस जन्म के कर्म ही अकेले ज़िम्मेदार नहीं हैं इनमें प्रारब्ध की भी भूमिका है और वह जन्म से ही है।
हमारे चाहने न चाहने की बात नहीं है।

काकभुशुण्डिजी कह रहे हैं कि हे हरि के वाहन गरुड़जी ! शास्त्रों में इन रोगों के उपचार के बहुत से उपाय बताए तो हैं किंतु उन सब साधनों से भी यह रोग नष्ट नहीं होते। शास्त्र तो धर्म, नियम, तप, जप, ज्ञान, यज्ञ आदि साधन बताते हैं किंतु उनसे इन रोगों से लड़ने की शक्ति तो आएगी पर रोग का नाश नहीं होता।

ऐसी स्थिति में इन भव रोगों से मुक्ति की युक्ति का भी वर्णन किया है –

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥
सदगुर बैद बचनबिस्वासा। संजम यह न बिषय कै आसा॥
इस रोगों से मुक्ति तो केवल एक ही विशेष संयोग के कारण ही हो सकती है – जब मनुष्य को श्री राम की कृपा से समय के सदगुरु का सानिध्य मिले और उनके वचनों (दवा) का सेवन; संयमी (परहेज) के साथ दृढ विश्वास के साथ करे तो – यह मानस रोग पूरी तरह से समाप्त हो सकते हैं यानी जीव जन्म-जन्मान्तरों की पीड़ा से मुक्त हो सकता है!

यदपि आज भी अनेक लोग अपने अपने तरीके से स्वयंभू बनकर अनेकानेक दावा किया करते हैं लेकिन जब समय के सद्गुरु मिलते हैं तो वे एक ही बात पर जोर देते हैं कि -तुम्हारी सुख-शान्ति और आनन्द का भण्डार तो पहले से ही तुम्हारे अन्दर रखा है; बस अपनी बाहर की चित्तवृतियों को अपने अन्दर मुड़ना होगा!

ख़ुशी की बात यह है कि आज भी मेरे जैसे लाखों लाख लोग हैं – जिन्होंने महाराजी द्वारा प्राप्त युक्ति के द्वारा अपने अन्दर ही वह विलक्ष्ण, व्यावहारिक अनुभव किया है!
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‼️शुभ अरुणोदय ‼️
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