विषय विकार या असली आनन्द!

कल मुझे अपने केन्द्र की वरिष्ठ गुरूबहन श्रीमती स्वर्ण कांता जी के परलोक गमन की विदाई के पलों का साक्षी बनने का मौका मिला!
सब लोग अपने अपने तरीके से उनको विदाई दे रहे थे! कई लोगों ने वर्चुअल संदेशों के माध्यम से अपने श्रद्धा सुमन व्यक्त कर रहे थे!

उनसे मेरी कभी ज्यादा वार्ता नहीं हुईं लेकिन उनकी महाराजी के प्रति अंतिम पलों तक की ललक ने मुझे झकझोरा!

मैं देखता था कि उनका जर्जर शरीर उनका साथ नहीं देता तो भी अपने पतिदेव और बच्चों को केन्द्र में होने वाले बड़े कार्यक्रमों में ले लाने के लिए बाध्य करती थी!
लगता यही था कि यद्यपि उनका शरीर अति वृद्ध हो चुका था लेकिन अपने सद्गुरु के लिए उनके ह्रदय का प्यार हमेशा जवान था!

कल से में उनकी अंतिम पलों तक की भक्ति, आस्था को महसूस कर रहा था और उसी सोच में अपने मन को समझाता रहा कि क्या मेरा लगाव भी अंतिम पलों तक ऐसे ही बना रह पायेगा? गाते तो सभी हैं कि भक्ति करता छुटे म्हारे प्राण… पर क्या यह बरदान सबको मिल पाता होगा?
दिल और दिमाग के इसी द्वंद में अपने ही मन को खरी खोटी सुनाने का मन हुआ और बैठ गया लिखने – जिसे आपके साथ शेयर कर रहा हूं!

मुझे व्यक्तिगत रुप आशा ही नहीं विस्वास है कि जब वे जीते जी, अंतिम स्वांस तक महाराज जी के साथ अटूट रिस्ता बनाने में सफल रहीं तो जिन्दगी के बाद भी उन्हीं की चरणों में जरुर होंगी!
मैं उनके परिजनों के लिए महाराजी से प्रार्थना करता हूं कि – वे माता जी विछोह को सहने की हिम्मत दें और पूरे परिवार को अपने चरणों में लगाए रखें!
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दिवंगत आत्मा की याद में समर्पित यह लेख आप सबके साथ शेयर कर रहा हूं!
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ऐसा कौन है?

जो अपने जीवन में काम, क्रोध, लोभ ने रंग-बिरंगी परिधानों से सम्मोहित ना हुआ हो?
जिसने माया मोह के बेड़ियाँ ना पहनी हो?
जो तृष्णा की आग में ना जला हो?
जो दिन रात माया महा ठगनी के इशारों पर नाचा न हो?
जो विषय विकारों के नकली भोगों को भोगने के लिए लालायित ना रहा हो?
जो अपनी कमियों को दूर करने के बजाय दूसरों के दोषों को समेटने में माहिर ना बना हो?
जो संसार की हर चीज़ जानकारी लेने के चक्कर में अपने आप को जानना ही भूल गया हो?

वास्तव में-
यही मृगतृष्णा मनुष्य को असली आनन्द से दूर ले गई है और निराश होकर उसे इस संसार से विदा होना पड़ता है और इस संसार से लोगों को इस हालात में संसार से विदा होते भी देखता भी है!

जीवन में सतगुरु आते हैं और डंके की चोट पर कहते हैं कि –
तुम खाली हाथ आये जरूर थे पर खाली हाथ नहीं जाओगे!

लेकिन फिर अनसुनी कर दिया जाता है – उनका यह गूढ़ सन्देश!

परिणामस्वरूप विरह वेदना के वे अल्प पल फिर इसी गफलत में निकल जाते हैं!

ऐसा अपने आप को समझाने वाला कौन है?
जो इन विषय रसों से अपने को बाहर करे और अपने मनीराम को बार बार समझाए कि – हजार बार चखे हुए को चखने के लिए तड़पना, देखे हुए को देखना, सुने हुए को सुनना, चबाए हुए को चबाना – कहाँ की बुद्धिमानी है?

विचार करें,
ये मन कभी भरने वाला है क्या?

हाजमा खराब हो गया,
इन्द्रियाँ शिथिल हो गईं,
उठने-बैठने में जोड़ जवाब दे गए,
आँखों पर चश्मा चढ़ गया,
गालों पर झुर्रियाँ पड़ गईं,
बाल सफेद होकर झड़ने लगे,
अपनी ही पुरानी तस्वीर
पहचान में आती नहीं,
नींद आती नहीं,
शूगर-बीपी-थायरॉइड अलग से,
वो काले भैंसे वाला
आज नहीं तो कल,
दरवाजा खटखटाए बिना ही – धड़धड़ाता हुआ छाती पर चढ़ने को तैयार खड़ा है –

पर यह विडंबना…
हाए …! हाए….!
जीभ का स्वाद तक तो नहीं छोड़ा जाता, अन्य भोगों की कौन कहे?

इधर-उधर की चर्चाएँ बहुत होती हैं।
बड़ी-बड़ी ज्ञान-विज्ञान की बातें होती हैं।
सुबह से रात तक प्रश्नों और उत्तरों की अनगिनत यात्रायें चलती रहती है।

पर
हैरानी यह है कि
न किसी के प्रश्न में प्राण हैं,
और न उत्तर में अनुभव।

परिणाम वही,
ढाक के तीन पात।

जीवन में झाँक कर देखें तो परिवर्तन बाल भर का भी नहीं।

खाली हाथ आशावान होकर आए थे!
और निराश होकर खाली हाथ विदा होने को मजबूर होना पड़ा!

कारण –
जीवन की आपाधापी में विषयों की ललक ने असली आनन्द से दूर कर दिया!

महापुरुषों के इशारों को
जानबूझकर नजरंदाज कर दिया!

किसी से साधन की बात पूछो तो
बगलें झाँकने लगते हैं।

साधन
तो बस इतना ही करते हैं कि
गिरते पड़ते खानापूर्ति हो जाए।

जैसे कोई पानी के बुलबुलों को पकड़कर, सागर में डूबने से बचना चाह रहे हैं ।

बस, सत्संग के नाम पर लोग एक दूसरे की-
तारीफ़ कर देंगे,
कसीदे घड़ देंगे,
दिन से रात तक
खूब जुबानी दण्डवत् चलेंगे,
साधन ठन ठन गोपाल।

🌸🌸🌸
समय के सद्गुरु बार बार आगाह करते हैं कि –
तुम्हारे नाम का बक्सा (पत्थर) तेज़ी से तुम्हारी ओर आ रहा है!
तुमने अगर अभ्यास नहीं किया तो तुम खतरे में हो!



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