सदगुरु और शिष्य

सदगुरु और शिष्य

किसी संत के पास एक बहरा आदमी सत्संग सुनने आता था! उसके कान तो थे पर वे नाड़ियों से जुड़े नहीं थे। एकदम बहरा! एक शब्द भी सुन नहीं सकता था । किसी ने संतश्री से कहा कि *”बाबा जी ! वे जो वृद्ध बैठे हैं, वे कथा सुनते-सुनते हँसते तो हैं पर वे बहरे हैं!*

वह बहरा व्यक्ति मुख्यतः दो बार हँसते हैं – *एक तो कथा सुनते-सुनते जब सभी हँसते हैं तब और दूसरा अनुमान करके बात समझते हैं तब अकेले हँसते हैं।*

बाबा जी ने कहा *”जब वह बहरा है तो कथा सुनने क्यों आता है?*

*वह व्यक्ति नियमित रूप से रोज एकदम समय पर पहुँच जाता है। चालू कथा से उठकर चला जाय ऐसा भी नहीं है, घंटों बैठा रहता है।“*

बाबाजी सोचने लगे कि *”यदि वह बहरा होगा तो कथा सुनता नहीं होगा और कथा नहीं सुनता होगा तो रस नहीं आता होगा। रस नहीं आता होगा तो उसे यहाँ बैठना भी नहीं चाहिए! उठकर चले जाना चाहिए लेकिन यह तो जाता भी नहीं है !”*

बाबाजी ने उस वृद्ध को बुलाया और उसके कान के पास ऊँची आवाज में कहा कि *क्या आपको कथा सुनाई पड़ती है?“*

उसने कहा *”क्या बोले महाराज?“*

बाबाजी ने आवाज और ऊँची करके पूछा कि *”मैं जो कथा कहता हूँ, क्या वह आपको सुनाई पड़ता है?“*

उसने फिर कहा :- *”क्या बोले महाराज?“*

बाबाजी समझ गये कि *यह नितांत बहरा आदमी है! बाबाजी ने सेवक से कागज कलम मँगाया और लिखकर पूछा!

तब वृद्ध ने बतलाया कि *”मेरे कान पूरी तरह से खराब हैं। मैं एक भी शब्द नहीं सुन सकता हूँ।“*

फिर उनके बीच लिखित में प्रश्नोत्तर शुरू हो गया।

बाबाजी ने कहा कि *जब तुम सुन ही नहीं सकते तो फिर सत्संग में क्यों आते हो?*

उसने उत्तर दिया कि बाबाजी ! मैं सुन तो नहीं सकता हूँ लेकिन यह तो समझता हूँ कि *जब संसारी आदमी बोलता है तो उसकी वाणी मन व बुद्धि को छूकर आती है लेकिन ब्रह्मज्ञानी संत जब बोलते हैं तो उनकी वाणी आत्मा को छूकर आती हैं यानी *मन बुद्धि से छूकर आने वाली बात कभी दिल तक नहीं पहुचती लेकिन इन बाहरी इन्द्रियों के ना होने पर भी सन्त ह्रदय की बात समझ में आने लगती हैं!*
इसलिय मैं बताना चाहता हूँ कि – *मैं आपकी अमृतवाणी तो नहीं सुन पाता हूँ पर उस पवित्र वातावरण का स्पन्दन मेरे हृदय को स्पर्श करता है।*
दूसरी बात *आपकी अमृतवाणी सुनने के लिए जो पुण्यात्मा लोग आते हैं उनके बीच बैठने का पुण्य भी मुझे प्राप्त होता है!“*

बाबा जी ने लगा कि *ये तो ऊँचे विचारों के ज्ञानी व्यक्ति हैं।
उन्होंने कहा कि *”तब तो आपको आगे से दो बार हँसने का अधिकार है! लेकिन मैं एक बात और जानना चाहता हूँ कि *आप रोज सत्संग में समय पर पहुँच जाते हैं और आगे बैठते हैं! ऐसा क्यों?“*

उस व्यक्ति ने सहज भाव से कहा कि *”मैं परिवार में सबसे बड़ा सदस्य हूँ। बड़े जैसा करते हैं उनकी देखा देखी वैसा ही छोटे भी करते हैं।*

जब मैं सत्संग में आने लगा तो मेरा बड़ा लड़का भी इधर आने लगा। शुरुआत में कभी-कभी मैं बहाना बना के उसे ले आता था। मैं उसे ले आया तो वह अपनी पत्नी को यहाँ ले आया! पत्नी बच्चों को ले आयी – सारा कुटुम्ब सत्संग में आने लगा! * इस प्रकार मेरे सारे कुटुंब को अच्छे संस्कार मिल गये!“*
🪷🪷🪷🪷
शास्त्रों में कहा गया है कि जब अनेक जन्मों का पुण्य उदय होता है तब *सत्संग* मिलता है और जब मनुष्य की पाप की गठरी खुलने लगती है तब *कुसंग* मिलता है।
🪷🪷🪷🪷
हम सब गुरुभक्तों के लिय ख़ुशी की बात है कि *हमको समय के सदगुरु का सानिध्य और सत्संग मिलता है!* हम सब जानते हैं कि *करोना जैसी आपदा में भी महाराजी ने अपने सीमित साधनों के माध्यम से हमारे लिय सत्संग की सरिता बहा दी!*

इससे बड़ी बात हमारे जीवन में क्या ही हो सकती हैं कि *हम सबको महाराजी का मार्गदर्शन मिल रहा है और महाराजी देश, काल, परिस्थितियों के हिसाब से हर बाहरी चीज में परिवर्तन करते हुए हमें हर हाल में आनन्दित कर रहे हैं!*

जैसा कि उस बहरे व्यक्ति ने उक्त कहानी में कहा है कि *मन बुद्धि से छूकर आने वाली बात कभी दिल तक नहीं पहुचती लेकिन इन बाहरी इन्द्रियों के ना होने पर भी सन्त ह्रदय की बात समझ में आने लगती हैं!*

*इस बात का जिक्र महाराजी भी अपने सत्संग में भी करते हैं!*

लेकिन कभी कभी हम लोग मन बुद्धि के प्रभाव में इतने आने लगते हैं कि *महाराजी ने विगत 10 साल पहले ये कहा था, पांच साल पहले वो बोला था – उसको आज की परिस्थिति में फिट करने की कोशीश करते हैं और यह भूल जाते हैं कि *महाराजी इस बार क्या करने के लिय कह गये हैं!*

जब हमारा अपना मन हमसे छल करता है तो *वह हमारे हर उस स्वास की कमाई को बर्बाद करता है जिसके बारे में महाराजी बार-बार समझाते हैं कि वही स्वांस सबसे सा है!*

हम खुद विचार करें कि *हम दूसरे को गलत और अपने को सही ठहराने के चक्कर में अपना नुकसान क्यों कर रहे हैं?*

हमें यह समझना होगा कि *समय के सदगुरु लकीर के फकीर नहीं होते!* उनमें क्षमता होती है कि *वह कुछ भी कर सकते हैं! इसीलिय उनको सर्व समर्थ कहा गया है!*

*जो सदगुरु बहरे को अपना सन्देश सुनाने की क्षमता रखते हों, अंधे को को अपना दिग्दर्शन करते हों अगर उनके वक्तव्यों का विश्लेषण मेरा जैसा अदना व्यक्ति करने लगे तो इसे मेरी विमति ही माना जायेगा!*

जब हम अपनी आरती में रोज प्रार्थना करते हैं कि –
*गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः ।*
*गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ॥*
गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं, गुरु हीं शिव हैं! *गुरु हीं साक्षात् परब्रह्म है!* उन सद्गुरु को प्रणाम है!

और उस *परम ब्रहम* की योग्यता का बखान रामायण में साफ साफ वर्णित है कि –

*बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।*
*कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥*

*आनन रहित सकल रस भोगी।*
*बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥*

*तन बिनु परस नयन बिनु देखा।*
*ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥*

*असि सब भाँति अलौकिक करनी।*
*महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥*
अर्थात –
वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है! बिना ही कान के सुनता है! बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है! बिना मुँह (जिह्वा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना वाणी के बहुत योग्य वक्ता है।

वह बिना शरीर (त्वचा) के ही स्पर्श करता है! आँखों के बिना ही देखता है और बिना नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती।

सदगुरु की इतनी अलोकिक और अपार शक्ति का *क्या कभी हमें अहसास होता है कि हम किस शक्ति के शिष्य हैं?*
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यह सब लिखने के लिय मुझे इसलिय विवश होना पड़ा कि *अभी भी कुछ प्रेमी कन्फूज हैं और अपने मन के भ्रम को सोशियल मिडिया में प्रसारित करके अन्य मासूम प्रेमियों को भी कन्फूज कर रहे हैं! जो कि सर्वथा गलत है!

जबकि महाराजी ने *प्रेरणा* कार्यक्रमों के माध्यम से स्पस्ट मार्गदर्शन दिया था कि *सब प्रेमी एकजुट होकर, एक मति से उनके सन्देश की पहुच सभी मानव ह्रदयों तक पहुँचाने की सेवा में लगें!*

इसलिय मेरी व्यक्तिगत विनती है कि *सभी प्रेमियों को महाराजी की इस भावना की कदर करनी चाहिय, सेवा, सत्संग और भजन अभ्यास पर अपना समय लगाना चाहिय साथ ही महाराजी के संदेशों की अपने तरीके से व्याख्या करने तथा उसे सोशियल ग्रुपों में अनावश्यक पोस्ट करने से बचना चाहिय! अगर कोई बात समझ में ना आये तो बार बार महाराजी के संदेशों को दिल लगाकर सुनें! महाराजी के अलावा कोई हमें भ्रमजाल से नहीं बचा सकता!*

*सादर जय सचिच्दानंद!*




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