स्वार्थ ने भक्ति को भी व्यापार बना दिया….

वर्तमान में प्रत्येक मनुष्य बिना लेन-देन के कोई काम करता ही नहीं है।आत्मज्ञान लेने में भी मनुष्य की यह सोच बन गई है कि ज्ञान लेने के बाद मुझे क्या फायदा मिलेगा? मुझे कितना धन दौलत मिलेगी? मन के अन्दर उथल-पुथल, हिसाब-किताब और लेन-देन की इस मानसिकता ने आत्मज्ञान को भी व्यापार बना दिया है। जबकि महाराजी पिछले ६० साल से इसे निशुल्क दे रहे हैं!

मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा व चर्च में जो भीड़ देखी जाती है उसमें भी ज्यादातर भीड़ तो सौदागरों की होती है।
सच्ची श्रद्धा और सच्चा प्रेम भी लेन-देन की वस्तुयें हो गई हैं।
हमने भगवान को यह दिया है और इतना मिल जाए ऐसी बात भगवान से करने में सभी माहिर हैं।
भले ही मामला स्वार्थ का हो, पर मन्दिर में भगवान से बातचीत करने की कला तो मनुष्य सीख चुका है। लेकिन सौदेबाजों के लाख शोर के बाद भी भगवान शुन्य बना रहता है।
इसलिए क्यों न ऐसा प्रयोग स्वयं के हृदय मन्दिर में विराजमान उस अविनाशी के लिए भी किया जायें। आज के अशान्त जीवन को देखते हुए ऐसा प्रयोग करना बहुत जरूरी है।

हृदय के मन्दिर की विशेषता होती है कि वहांँ एक “अव्यक्त शब्द ब्रह्म” की अनुगूंँज सदैव चलती रहती है। हररोज क्रियाओं के अभ्यास से मन को “नाम-सुमिरण” की धुन में लीन करके हृदय की वह गूंँज सुनिये। न उसके कोई शब्द हैं, न अर्थ। लेकिन ऐसा अनुभव होगा कि वह गूंँज कह रही है : अच्छा हुआ तुम आ गए।

पहली बार ऐसा लग रहा है कि यहांँ कोई सौदा करने नहीं आया है। आप साक्षी भाव से बैठे हो। धीरे-धीरे यह गूंँज अनुभव कराने लगेगी कि आप वे नहीं हैं, जो हररोज मन्दिर जाकर कुछ मांँगते हैं, सौदेबाजी करते हैं। बल्कि आप कुछ और हैं।
अभ्यास से जैसे ही मन “नाम-सुमिरण” के साथ एकाकार होगा तो पहली निकटता हृदय के अविनाशी की मिल जाएगी। उसी पल हृदय के नाम-सुमिरण से शान्ति का अनुभव हो जायेगा और तब पता चलता है कि आज सचमुच वह मकसद पुरा हुआ जिसके लिए यह स्वांँस आ रहा है, जा रहा है।

हमारे लिय खुशखबरी यही है कि आज भी महाराजी हमको हमसे मिलाने की प्रक्रिया के हमारी सहायता के लिय हमेशा तयार हैं बस हमको अपने अन्दर की यात्रा के लिय खुद को तयार करना है!




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