हम सभी जानते हैं कि एक मुसाफिर की तरह इस दुनिया में हम सबका आगमन हुआ है! सांसारिक यात्रा में हमें पता होता है

हम सभी जानते हैं कि एक मुसाफिर की तरह इस दुनिया में हम सबका आगमन हुआ है! सांसारिक यात्रा में हमें पता होता है कि *”हमारी यात्रा कब, कहाँ से शुरू होगी और कितने समय पर समाप्त होगी लेकिन जीवन यात्रा में जाने का समय बहुत ही अनिश्चित है! कब, कहाँ और किस उम्र में इस लोक से प्रस्थान करके परलोक जाना होगा – इसका किसी को पता नहीं है!”*

अभी तीन दिन पहले मेरे पूज्य बड़े भाई साहब *स्वनामधन्य श्री त्रिलोक सिंह गहतोड़ी जी* को अपनी परलोकगमन की यात्रा में जाना पडा!
उन पर महाराजी की असीम दया थी कि *महाराज जी ने असीम कृपा करके, उनको 1975 में अपनाया और उनकी दुनिया को अपने ज्ञानालोक से रोशन करके, उन्हें जीते जी शांति में रहने की युक्ति का बोध कराया!*

मैंने उनके भोतिक और आध्यात्मिक जीवन को करीब से देखा और पाया कि *उनकी बाहरी दुनिया उथल-पुथल और अनिश्चितताओं से भरी हुई थी! पारिवारिक रिश्तेनातों के मकडजाल में बुरी तरह से उलझे होने के बावजूद भी उन्होंने महाराजी की कृपा से अपनी आंतरिक दुनिया को बेहद सुकून और प्रतिबद्धता के साथ जिया!*

सहोदर भाई होने के नाते उनके भोतिक विछोह से हम आहत तो जरूर हैं फिर भी महाराजी की कृपा और शुभ चिंतकों के स्नेहषीशों के बदोलत हमें आप सबका आत्मिक सहारा मिल रहा है और हम विधि के विधान को नतमस्तक करते हुए इस विरद में भी अपने को संयत करने का प्रयास कर रहे हैं !

मुझे यह आभास भी प्रत्यक्ष रूप में हुआ कि *इस अमूल्य स्वांस की डोरी टूटने के बाद संसार की सारी भोतिक चीजें, उपलब्धियां और रिश्ते नातों का कोई अर्थ नहीं रह जाता है! मान-गुमान, महल-अटारियां, अपने-पराये का अन्तर एक ही पल में धराशायी होता दिखायी देता हैं!*

जीवित अवस्था की चकाचौंध और एकाकी परलोकगमन के बीच केवल *एक स्वांस का अन्तर* होता है! *इसी अनमोल स्वांस की महत्ता समय के सदगुरु समझाते हैं! लेकिन हम मायावी लोग अक्सर उनके इस इशारे की अनदेखी / अहवेलना किया करते हैं और यही हमारे पछतावे का कारण बनता है!*

संतों कहा भी है कि *”यह शरीर एक मिट्टी डिब्बा है और स्वांस रूपी कीमती हार इसके अन्दर हुआ है! तभी यह देव-दुर्लभ नरतन कहलाता है!”*

परन्तु *अज्ञानता के कारण हम केवल डिब्बे से ही प्यार करते हैं, उसको सजाने और सवारने की कोशिश किया करते हैं और कीमती स्वांस रूपी हीरे को भूल जाते हैं फ़लस्वरूप अंत में पछतावा ही होता है!*

एक काल्पनिक लेख जो कडुवा तो जरूर है पर सार्वभौमिक सत्त्यता को प्रतिबिम्बित करता है- इस कडुवाहट भरे लेख को आपके साथ भी शेयर कर रहा हूँ!

आशा है आपको भी इस देव-दुर्लभ मनुष्य शरीर के अन्दर कीमती स्वांस की अनुपस्थिति और इसके साथ अपनों के द्वारा किये गए सलूक का भान जरूर होगा!

🌸🌸अर्थी के मन का आवेग और जीवितों के लिये संदेश🌸🌸

अर्थी पर पड़े हुए शव पर लाल कपड़ा बाँधा जा रहा है। गिरती हुई गरदन को सँभाला जा रहा है। पैरों को अच्छी तरह रस्सी बाँधी जा रही है, कहीं रास्ते में मुर्दा गिर न जाए। गर्दन के इर्दगिर्द भी रस्सी के चक्कर लगाये जा रहे हैं। पूरा शरीर लपेटा जा रहा है। अर्थी बनाने वाला बोल रहा है: *‘तू उधर से खींच’* दूसरा बोलता है : *‘मैने खींचा है, तू गाँठ मार।’*

लेकिन यह गाँठ भी कब तक रहेगी? रस्सियाँ भी कब तक रहेंगी? अभी जल जाएँगी और रस्सियों से बाँधा हुआ शव भी जलने को ही जा रहा है! धिक्कार है इस नश्वर जीवन की अज्ञानता को! धिक्कार है इस नश्वर देह की झूठी ममता को! धिक्कार है इस शरीर के बृथा अभिमान को!

अर्थी को कसकर बाँधा जा रहा है। आज तक तुम्हारा नाम सेठ साहब की लिस्ट (सूची) में था। *अब वह मुर्दे की लिस्ट में आ गया।* लोग कहते हैं: ‘*मुर्दे को बाँधो जल्दी से।’* अब ऐसा नहीं कहेंगे कि *‘सेठ जी को, साहब को, मुनीम को, नौकर को, संत को, असंत को बाँधो!* केवल यही कहेंगे कि ‘*मुर्दे को बाँधो।’*

हो गया *हमारे पूरे जीवन की उपलब्धियों का अंत।*
आज तक हमने जो कमाया था *वह हमारा न रहा।*
आज तक हमने जो जाना था *वह मृत्यु के एक झटके में छूट गया।*
हमारे इन्कम टेक्स (आयकर) के कागजातों को,
हमारे प्रमोशन और रिटायरमेन्ट की बातों को,
हमारी उपलब्धि और अनुपलब्धियों को सदा के लिए
*अलविदा होना पड़ा।*

हाय रे मनुष्य! तेरा श्वास! हाय रे तेरी कल्पनाएँ! हाय रे तेरी नश्वरता! हाय रे मनुष्य; तेरी वासनाएँ! आज तक इच्छाएँ कर रहा था कि *इतना पाया है और इतना पाँऊगा, इतना जाना है और इतना जानूँगा, इतना को अपना बनाया है और इतनों को अपना बनाँऊगा, इतनों को सुधारा है, औरों को सुधारुँगा।*

अरे! *हम अपने को मौत से तो न बचा पाए! अपने को जन्म मरण से भी न बचा पाए! देखी तेरी ताकत! देखी तेरी कारीगरी !*

*हमारा शव बाँधा जा रहा है। हम अर्थी के साथ एक हो गये हैं। शमशान यात्रा की तैयारी हो रही है। लोग रो रहे हैं। चार लोगों ने अर्थी को उठाया और घर के बाहर हमें ले जा रहे हैं। पीछे-पीछे अन्य सब लोग चल रहे हैं।*

कोई स्नेहपूर्वक आया है, कोई मात्र दिखावा करने आये है। कोई निभाने आये हैं कि *समाज में बैठे हैं तो पाँच-दस आदमी सेवा के हेतु आये हैं।* उन लोगों को पता नहीं कि *उनकी भी यही हालत होगी।* अपने को कब तक अच्छा दिखाओगे? अपने को समाज में कब तक ‘सेट’ करते रहोगे? सेट करना ही है तो *अपने को परमात्मा में ‘सेट’ क्यों नहीं करते भैया?*

दूसरों की शवयात्राओं में जाने का नाटक करते हो? ईमानदारी से शवयात्राओं में जाया करो। अपने आपको समझाया करो कि *तेरी भी यही हालत होनेवाली है। तू भी इसी प्रकार उठनेवाला है, इसी प्रकार जलनेवाला है। बेईमान मन! तू अर्थी में भी ईमानदारी नहीं रखता? जल्दी करवा रहा है? घड़ी देख रहा है? ‘आफिस जाना है… दुकान पर जाना है…’ अरे! आखिर में तो शमशान में जाना है ऐसा भी तू समझ ले! आफिस जा, दुकान पर जा, सिनेमा में जा, कहीं भी जा लेकिन आखिर तो शमशान में ही जाना है। तू बाहर कितना जाएगा?*

🌺अर्थी का आखिरी संदेश🌺*
😭😭😭😭😭😭
यह *राम नाम सत्य है!* के *सत्य* को जीते जी ही जानना चाहिय! जिस स्वांस की अनुपस्थिति में यह *शव यात्रा* निकल रही है उस शक्ति का सभी को *जीते जी साक्षात्कार* करना चाहिय!
😭😭😭😭😭😭
इसलिये –
*हर पल हरि सुमिरन (अभ्यास) में ही जीवन व्यतीत करो! पल-पल मृत्यु की ओर बढ़ रहे हो और गफलत की नीद में बेहोश सोये पड़े हुए हो! जागो! अंतर्मुखी बनो! इस शरीर रूपी डिब्बे से नहीं बल्कि इसके अन्दर स्वांस रूपी हीरे से प्यार करो!*

🕉 शान्ति🙏,,,,




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