हनुमानजी की चुटकी सेवा

हनुमानजी की चुटकी सेवा

अयोध्या में प्रभु श्रीराम का राज्याभिषेक होने के बाद हनुमानजी वहीं रहने लगे। उन्हें तो श्रीराम की सेवा का व्यसन (नशा) था। सच्चे सेवक का लक्षण ही है कि वह आराध्य के चित्त की बात जान लिया करता है। उन्हें पता रहता है कि मेरे स्वामी को कब क्या चाहिए और कब क्या प्रिय लगेगा? श्रीराम को कोई वस्तु चाहिए तो हनुमानजी पहले से लेकर उपस्थित। किसी कार्य, किसी पदार्थ के लिए के लिए संकेत तक करने की आवश्यकता नहीं होती थी।

हनुमानजी की सेवा का परिणाम यह हुआ कि भरत आदि भाइयों को श्रीराम की कोई भी सेवा प्राप्त करना कठिन हो गया। इससे घबराकर सबने मिलकर एक योजना बनाई और श्रीजानकीजी को अपनी ओर मिला लिया। प्रभु की समस्त सेवाओं की सूची बनाई गयी। कौन-सी सेवा कब कौन करेगा, यह उसमें लिखा गया। जब हनुमानजी प्रात:काल सरयू-स्नान करने गए तब अवसर का लाभ उठाकर तीनों भाइयों ने सूची श्रीराम के सामने रख दी। प्रभु ने देखा कि सूची में कहीं भी हनुमानजी का नाम नहीं है। उन्होंने मुसकराते हुए उस योजना पर अपनी स्वीकृति दे दी। हनुमानजी को कुछ पता नहीं था।

दूसरे दिन प्रात: सरयू में स्नान करके हनुमानजी जब श्रीराम के पास जाने लगे तो उन्हें द्वार पर भाई शत्रुघ्न ने रोक दिया और कहा–’ आज से श्रीराम की सेवा का प्रत्येक कार्य विभाजित कर दिया गया है। जिसके लिए जब जो सेवा निश्चित की गयी है, वही वह सेवा करेगा। श्रीराम ने इस व्यवस्था को अपनी स्वीकृति दे दी है।’

हनुमानजी बोले— ‘जब प्रभु ने स्वीकृति दे दी है तो उसमें कहना क्या है? सेवा की व्यवस्था बता दीजिये, अपने भाग की सेवा में करता रहूंगा।’

सेवा की सूची सुना दी गयी, उसमें हनुमानजी का कहीं नाम नहीं था। उनको कोई सेवा दी ही नहीं गयी थी क्योंकि कोई सेवा बची ही नहीं थी। सूची सुनकर हनुमानजी ने कहा—‘इस सूची में जो सेवा बच गयी, वह मेरी होनी चाहिए।’

सबने तुरन्त सिर हिलाया और कहा, ’हां, वह सेवा आपके हिस्से की!’
हनुमानजी ने कहा— ‘इस पर भी प्रभु की स्वीकृति भी मिलनी चाहिए।’ और श्रीराम जी ने भी इस बात पर अपनी स्वीकृति दे दी।

स्वामी श्रीराम का जिस प्रकार कार्य सम्पन्न हो, हनुमानजी वही उपाय करते हैं, उन्हें अपने व्यक्तिगत मान-अपमान की जरा भी चिन्ता नहीं रहती थी।

हनुमानजी बोले—‘मेरे प्रभु को जब जम्हाई आएगी, तब उनके सामने चुटकी बजाने की सेवा मेरी।’

यह सुनकर सब चौंक गये। इस सेवा पर तो किसी का ध्यान गया ही नहीं था। लेकिन अब क्या करें? अब तो इस पर प्रभु की स्वीकृति भी मिल चुकी थी।

चुटकी सेवा के कारण हनुमानजी राज सभा में दिन भर श्रीराम के चरणों के पास उनके मुख की ओर टकटकी लगाए बैठे रहे क्योंकि जम्हाई आने का कोई समय तो है नहीं। रात्रि हुई, स्नान और भोजन करके श्रीराम अंत:पुर में विश्राम करने पधारे तो हनुमानजी उनके पीछे-पीछे चल दिए। द्वार पर सेविका ने रोक दिया—‘आप भीतर नहीं जा सकते।’

हनुमानजी वहां से हट कर राजभवन के ऊपर एक कंगूरे पर जाकर बैठ गए और लगे चुटकी बजाने।

पर यह क्या हुआ?
श्रीराम का मुख तो खुला रह गया। न वे बोलते हैं, न संकेत करते हैं, केवल मुख खोले बैठे हैं। श्रीराम की यह दशा देखकर जानकीजी व्याकुल हो गईं। तुरन्त ही माताओं को, भाइयों को समाचार दिया गया। सब चकित और व्याकुल पर किसी को कुछ सूझता ही नहीं। प्रभु का मुख खुला है, वे किसी के प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दे रहे हैं।

अंत में गुरु वशिष्ठ बुलाए गये। प्रभु ने उनके चरणों में मस्तक रखा; किन्तु मुंह खुला रहा, कुछ बोले नहीं।

वशिष्ठजी ने इधर-उधर देखकर पूछा—‘हनुमान कहां हैं, उन्हें बुलाओ तो?’

जब हनुमानजी को ढूंढ़ा गया तो वे श्रीराम के कक्ष के कंगूरे पर बैठे चुटकी बजाए जा रहे हैं, नेत्रों से अश्रु झर रहे हैं, शरीर का रोम-रोम रोमांचित है, मुख से गद्गद् स्वर में कीर्तन निकल रहा है—‘श्रीराम जय राम जय जय राम।’

भाई शत्रुघ्न ने हनुमानजी से कहा—‘आपको गुरुदेव बुला रहे हैं।’ हनुमानजी चुटकी बजाते हुए ही नीचे पहुंचे।

गुरुदेव ने हनुमानजी से पूछा—‘आप यह क्या कर रहे हैं?’

हनुमानजी ने उत्तर दिया—‘प्रभु को जम्हाई आए तो चुटकी बजाने की सेवा मेरी है। मुझे अन्तपुर में जाने से रोक दिया गया। अब जम्हाई का क्या ठिकाना, कब आ जाए, इसलिए मैं चुटकी बजा रहा हूँ, जिससे मेरी सेवा में कोई कमी न रह जाए।’

वशिष्ठजी ने कहा—‘तुम बराबर चुटकी बजा रहे हो, इसलिए श्रीराम को तुम्हारी सेवा स्वीकार करने के लिए जृम्भण मुद्रा (उबासी की मुद्रा) में रहना पड़ रहा है। अब कृपा करके चुटकी बजाना बंद कर दो।’

श्रीराम के रोग का निदान सुनकर सबकी सांस में सांस आई। हनुमानजी ने चुटकी बजाना बंद कर दिया तो प्रभु ने अपना मुख बंद कर लिया।

अब हनुमानजी हंसते हुए बोले—‘तो मैं यहीं प्रभु के सामने बैठूँ? और सदैव सभी जगह जहां-जहां वे जाएं, उनके मुख को देखता हुआ साथ बना रहूँ, क्योंकि प्रभु को कब जम्हाई आएगी, इसका तो कोई निश्चित समय नहीं है।’

प्रभु श्रीराम ने कनखियों से जानकीजी को देखकर कहा, मानो कह रहे हों—‘और करो सेवा का विभाजन ! हनुमान को मेरी सेवा से वंचित करने का फल देख लिया।’

स्थिति समझकर वशिष्ठजी ने कहा—‘यह सब रहने दो, तुम सब जैसे पहले सेवा करते थे, वैसे ही करते रहो।’

अब भला, गुरुदेव की व्यवस्था में कोई क्या कह सकता था। उनका आदेश तो सर्वोपरि है।

यही कारण है कि श्रीराम-पंचायतन में हनुमानजी छठे सदस्य के रूप में अपने प्रभु श्रीराम के चरणों में निरन्तर उनके मुख की ओर टकटकी लगाए हाथ जोड़े बैठे रहते हैं।

हनुमानजी की सेवा के अधीन होकर प्रभु श्रीराम ने उन्हें अपने पास बुला कर कहा—
कपि-सेवा बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ।
देबेको न कछू रिनियाँ हौं, धनिक तूँ पत्र लिखाउ।।
(विनय-पत्रिका पद 10017)
‘भैया हनुमान ! तुम्हें मेरे पास देने को तो कुछ है नहीं; मैं तेरा ऋणी हूँ तथा तू मेरा धनी (साहूकार) है। बस इसी बात की तू मुझसे सनद लिखा ले।’
इसलिय एक भजन में किसी भक्त ने अपने भाव रखे हैं कि – भक्तों से ज्यादा तुमको कोई और प्यारा ना हुआ..

यह कभी न भूलें कि – हमारे प्रभु सर्वज्ञ है, अन्तर्यामी हैं और उनको हर भक्त के भावों का पता है! किसको, कब, कहाँ और कैसी सेवा देनी है वे बेहतर जानते हैं!




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