मृत्यु अवश्यम्भावी है!

मृत्यु अवश्यम्भावी है!

हम सबने क्या कभी किसी पक्षी को मरते देखा?
ऐसे सरल, ऐसे सहज, चुपचाप विदा हो जाता है! पंख भी नहीं फड़फड़ाता। शोरगुल भी नहीं मचाता। पक्षी तो इतने चुपचाप विदा हो जाते हैं,  इतनी सरलता से विदा हो जाते हैं! ज़रा नोच-खचोंट नहीं। ज़रा शोरगुल नहीं। मौत में भी एक अपूर्व शांति होती है।

वही जब आदमी को मरते देखो तो कितना उपद्रव मचाता है, कितना रोकने की अपने को चेष्टा करता है!

इसका क्या कारण होता होगा?

कारण एक ही है – उस समय स्पष्ट महसूस होता है कि अनमोल जिंदगी व्यर्थ गई और बेरहम मौत आ गई – वही एक पल और जीने की छटपटाहट होती है!

लेकिन अब आगे कोई समय बचा ही नहीं। *खाली आए और खाली गए! जीवन में कुछ भराव नहीं और यह मौत आ गई।
ऐसे में इन्सान तड़फे नहीं तो क्या करे ?

जिन लोगों को समय के सदगुरु का सानिध्य मिलता है – वे इस अवागमन के दुःख से बच जाते हैं! क्योंकि गुरुमहाराजी बतलाते हैं कि -तुम खाली हाथ आये जरूर थे पर तुमको खाली हाथ जाने की जरूरत नहीं है!

यही कारण है कि प्राचीन ऋषि मनीषी अंत समय में समांधिष्ट हो जाते थे! जिसने भी यह समझ लिया हो कि वह निश्चित समय के लिय यहाँ मुसाफिर के रूप में आया है और उसने अपने जीवन में जीवन का जीते जी आनन्द भी लिया हो वह व्यक्ति शांति से, उल्लास से, उमंग से विदा होते हैं!

जैसे किसी प्यारी यात्रा पर जा रहे हों! ज़रा भी, क्षण-भर के लिय, कण-भर का भी उन्हें मोह नहीं होता उनको अपनी जीवन नैया के इस तट से बंधे रहने का कोई लालच नहीं होता, वे छोड़ देते अपनी नाव को उस पार जाने के लिय। खोल देते अपने पंख। यही सोच कर कि कूच करने की विराट पुकार आ गई, वह आवाज, संदेश आ गया।

फिर रुकना कैसा? जब इस तट को खूब जी लिया, मन भर कर जी लिया जी भरकर जी लिया! इस तट के गीत भी सुन लिए, इस तट का गीत भी गा लिया। इस तट के नृत्य भी देख लिए, इस तट का नाच भी नाच लिया। इस तट पर जो भी सुंदर था, जो भी मूल्यवान था, सबका स्वाद ले लिया। जाने की घड़ी आ ही गई। अब और तटों पर होंगे। अब और नृत्य और गीत उठेंगे। अब और दीए जलेंगे। एक उल्लास है। एक जाने की तत्परता है। अगर गीत न गाया गया हो तो मुश्किल खड़ी होती है।

मृत्यु उनके लिय पीड़ादायक अवश्य है – जिन्होंने जीते जी इस जीवन का गीत गाया नहीं है। गीत गाने की तो बात दूर, उनके साज भी टूट गया है। वीणा के तार भी उखड़ गए हैं। वाद्य भी विकृत हो गया है। आवाज भी मर गई है। वह आवाज जो गीत गाने को दी गई थी – वह दूसरों को गालियां देते-देते मर गई है। ये प्राण जो प्रार्थना के लिए दिए थे- उनका प्रार्थना से तो कोई संबंध ही न जुड़ा! सारी शक्ति पद-प्रतिष्ठा की आपा-धापी में ही लग गये! ये धड़कनें जो परमात्मा के साथ नाचने के लिए थीं – इन्हें भी झूठे प्यार में बिता दिया!

जब लोग आत्मा बेच कर मरते हैं – तो रोते हुए मरते हैं, पछताते हैं!
यह पछतावा न हो – महाराजी बतलाते हैं कि जीते जी उस शान्ति से सम्बन्ध बना लो क्योंकि शांति सम्भव है!

जीवन एक यात्रा है इसे जबरदस्ती तय ना करें,
बल्कि इस यात्रा को जबरदस्त तरीके से तय करें।
मृत्यु के डर से तड़पने की बजाए
जीवन को संयमित रहते हुए
सेवा, सत्संग और अभ्यास के द्वारा जीवन का उत्सव बनाएं
जिससे विदा की बेला में पछताना ना पड़े।




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