मोह – सकल वय्धीन कर मूला!

मोह – सकल वय्धीन कर मूला!

श्रीमद्भगवत गीता में भगवान अर्जुन से कहते हैं, काम महाशत्रु है। क्रोध के लिए भी कहा गया है क्रोध करने वाला क्रोधाग्नि में दूसरे से पहले स्वयं को जलाता है। इन दो बड़े विकारों के साथ-साथ मोह भी कम नहीं है। मोह प्रत्यक्ष में तो बहुत मीठा लगता है किंतु इसका प्रभाव बहुत ही हानिकारक होता है। मोह से ग्रसित व्यक्ति अपने साथ-साथ अपने वंश के विनाश का भी निमित्त बनता है।
यादगार ग्रंथ महाभारत का पात्र धृतराष्ट्र इसका ज्वलंत उदाहरण है। मोह कैसे मनुष्य की बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है!

प्रस्तुत है एक कहानी –

एक अधेड़ उम्र के सेठ जी अपनी दुकान में बैठे चक्की पर दाना दल रहे थे। दलते जाते, कहते जाते- “इस जीवन से तो मौत अच्छी है।” तभी एक साधू ने वहां से गुजरते हुए, सेठ जी के शब्द सुने, सोचा कितना दुखी है यह व्यक्ति! इसकी सहायता करनी चाहिये।

सेठ के पास जाकर बोले – “सेठ, बहुत दुखी लगता है तू ! मेरे पास एक विद्या है ! यदि तू चाहे तो तुझे स्वर्ग ले जा सकता हूँ।” चल, तुझे दुखों से छुटकारा मिल जायगा।

सेठ साधु की ओर देखकर बोला – “अभी कैसे चल सकता हूं? मेरे कोई संतान नहीं है, संतान हो जाय तो चलूँगा।” सुनकर साधु चला गया।

कुछ वर्षों बाद सेठ के दो बेटे हुए। एक दिन फिर वही साधु आया और बोला – “चलो सेठ ! अब तो तुम्हारी सन्तान भी हो गई।”

सेठ ने कहा – “हाँ हो तो गई, परन्तु लड़के तनिक बड़े होकर किसी लायक हो जाएँ, तब तुम आना, मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।

लड़के बड़े हो गये। साधु फिर आया, सेठ नहीं दिखाई दिया। पूछने पर पता लगा की सेठ मर गया। साधु ने योगबल से देखा कि मर कर वह सेठ दुकान के बाहर बैल बनकर बंधा हुआ है।

उसके पास जाकर साधु ने कहा – “अब चलेगा स्वर्ग को?”
बैल रूपी सेठ ने सर हिला कर कहा- “कैसे जाऊँ? बच्चे अभी नासमझ हैं, मैं चला गया तो बच्चे दूसरा बैल ले आयेंगे। जितनी सेवा मैं करता हूं, दूसरा बैल बोझ नहीं करेगा और मेरे बच्चों को हानि हो जायेगी। ना भाई! अभी तो मैं नहीं जा सकता। कुछ समय बाद आना।”

पांच वर्ष बाद साधु फिर आया। देखा- दुकान के सामने अब बैल नहीं है। पता करने पर ज्ञात हुआ, बोझ ढोते ढोते मर गया।

साधु ने फिर अपने योग बल से पता लगाया – वह सेठ अपने ही घर के द्वार पर कुत्ता बन कर बैठा है।

साधु ने उसके पास जाकर कहा – “अब तो बोझ ढोने की बात भी नहीं रही। अब चल, तुझे स्वर्ग ले चलूँ।”

कुत्ते के शरीर में बैठे सेठ ने कहा- “अरे कैसे चलूं! देखो मेरी बहू ने कितने आभूषण पहन रखे हैं? मेरे लड़के घर में नहीं हैं। यदि कोई चोर आया तो बहु को बचायेगा कौन?” तुम फिर आना।

एक वर्ष बाद उसने वापस आकर देखा कि कुत्ता भी मर चुका है।

साधु ने अपने योग बल द्वारा पुनः उस सेठ को खोजा तो ज्ञात हुआ कि वह अपने घर के पास बहने वाली गन्दी नाली में कीड़ा बन के बैठा है।

साधु ने उसके पास जाकर कहा- “देखो सेठ! क्या अब इससे बड़ी दुर्गति भी होगी?” कहाँ से कहाँ पहुँच गये तुम ! अब भी मेरी बात मानो। “चलो, तुम्हें स्वर्ग ले चलूँ।”

कीड़े के शरीर में बैठे सेठ ने चिल्ला कर कहा – “चला जा यहाँ से! क्या मैं ही रह गया हूँ स्वर्ग जाने के लिए?” यहाँ पोते पोतियों को आते जाते देख कर प्रसन्न होता हूं। “स्वर्ग में क्या मैं तेरा मुख देखा करूँगा?”

यह है – मोह के चक्र में फंसे रहने का परिणाम।

मोह का चक्र आत्मा को नीचे ही नीचे ढकेलता चला जाता है। हे मानव! अब तो इस मोह जाल से निकल और अपने उद्धार की सोच!

संतों ने कहा भी है कि –
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला!
काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा!!
अर्थात्, सब रोगों की जड़ मोह (अज्ञान) है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार (बढ़ा हुआ) कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है!

इसलिय, इन रोगों से बचने का उपाय जीते जी कर लेना चाहिय!

जिसके लिय संतों ने समय के सदगुरु रूपी वैद्य के पास जाने के लिय कहा गया है!
राम कृपाँ नासहिं सब रोगा। जौं एहि भाँति बनै संजोगा!
सदगुरू वैद्य बचन बिस्वासा। संजम यह न बिषय करि आसा!!
अर्थात्, यदि श्रीराम जी की कृपा से इस प्रकार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग नष्ट हो जाएँ यानी सद्गुरु रूपी वैद्य के वचन में विश्वास हो। विषयों की आशा न करे, यही संयम (परहेज) हो!
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