हृदय में आनंद हो तो वसंत कभी भी आ सकता है।
*जीवन परिवर्तनशील है! इसलिए वह हमेशा चक्र की भांति घूमता रहता है। इस घूमते हुए चक्र से ही ऋतुएं बनती हैं।
जैसे इन्सान के अलग-अलग मनोभाव होते हैं – कभी दृढ़, कभी प्रफुल्लित तो कभी शांत, कभी गर्म तो कभी अशान्त!
वैसे ही प्रकृति के भी मूड्स होते हैं और उसे ही ऋतु चक्र कहते हैं।
मनुष्य का मन और प्रकृति एक दूसरे के बहुत निकट हैं। इसलिए बदलते हुए मौसम मन को प्रभावित करते हैं। एक प्रकृति मनुष्य के बाहर है और एक प्रकृति भीतर है। जब बाहर प्रकृति बदलती है तो कहीं न कहीं अंतर्मन की प्रकृति को भी प्रभावित करती है।
जैसे मौसम बदलने से मन की भावनाएं, विचार, इच्छाएं, सब कुछ बदलता है। जब आसमान में घने बादल छा जाते हैं, तब मन के आसमान में भी उदासी छा जाती है और जब बाहर चिड़िया चहकती है और फूल खिलते हैं, तब मन भी वसंत हो जाता है।
इससे विपरीत , जब आदमी का मन बदलता है तो उसका असर प्रकृति पर दिखाई देता है। पर्यावरण की खराब हालत आदमी के हिंसक मन का ही असर है। दुखी आदमी पर्यावरण का विनाश करता है।
जिनके मन शांत और सुंदर होते हैं, वे अपने आसपास सौंदर्य की बगिया लगाते हैं, प्रकृति को खुशहाल रखते हैं, उसका आदर करते हैं।
भीतर अगर वासंतिक मनोभाव न हो! हृदय में बसंती रंग न छाया हो तो पीले कपड़े पहनकर भी वसंत बुझा-बुझा सा रहेगा, सुलग न पाएगा।*
हम सबके भीतर हमारा अपना वसंत छिपा हुआ है।
आइये, अपने अन्तरमन में भी झांकें, वहाँ के सोंदर्य का आनन्द लें!
🙏🙏 जय सच्चिदानंद🙏🙏
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