एक बार की बात है कि श्री कृष्ण और अर्जुन कहीं जा रहे थे।
रास्ते में अर्जुन ने श्री कृष्ण से पूछा कि *प्रभु – एक जिज्ञासा है मेरे मन में, अगर आज्ञा हो तो पूछूँ?*
श्री कृष्ण ने कहा – *अर्जुन, तुम मुझसे बिना किसी हिचक कुछ भी पूछ सकते हो।*
तब अर्जुन ने कहा कि *मुझे आज तक यह बात समझ नहीं आई है कि दान तो मै भी बहुत करता हूँ परंतु सभी लोग कर्ण को ही सबसे बड़ा दानी क्यों कहते हैं?*
यह प्रश्न सुन श्री कृष्ण मुस्कुराये और बोले कि *आज मैं तुम्हारी यह जिज्ञासा अवश्य शांत करूंगा।*
🌤श्री कृष्ण ने पास में ही स्थित दो पहाड़ियों को सोने का पहाड़ बना दिया।
इसके बाद वह अर्जुन से बोले कि *हे अर्जुन, इन दोनों सोने की पहाड़ियों को तुम आस पास के गाँव वालों में बांट दो।*
अर्जुन प्रभु से आज्ञा ले कर तुरंत ही यह काम करने के लिए चल दिया।
उसने सभी गाँव वालों को बुलाया। उनसे कहा कि *वह लोग पंक्ति बना लें अब मैं आपको सोना बाटूंगा और सोना बांटना शुरू कर दिया।*
गाँव वालों ने अर्जुन की खूब जय जयकार करनी शुरू कर दी। अर्जुन सोना पहाड़ी में से तोड़ते गए और गाँव वालों को देते गए।लगातार दो दिन और दो रातों तक अर्जुन सोना बांटते रहे।उनमे अब तक अहंकार आ चुका था। गाँव के लोग वापस आ कर दोबारा से लाईन में लगने लगे थे। कुछ समय पश्चात अर्जुन काफी थक चुके थे।
लेकिन यह क्या? *जिन सोने की पहाड़ियों से अर्जुन सोना तोड़ रहे थे, उन दोनों पहाड़ियों के आकार में जरा भी कमी नहीं आई थी।*
उन्होंने श्री कृष्ण जी से कहा कि *अब मुझसे यह काम और न हो सकेगा। मुझे थोड़ा विश्राम चाहिए।*
प्रभु ने कहा कि *ठीक है तुम अब विश्राम करो और उन्होंने कर्ण बुला लिया।*
उन्होंने कर्ण से कहा कि *इन दोनों पहाड़ियों का सोना इन गांव वालों में बांट दो।*
कर्ण भी तुरंत सोना बांटने चल दिये। उन्होंने गाँव वालों को बुलाया और उनसे कहा – *यह सोना आप लोगों का है , जिसको जितना सोना चाहिए वह यहां से ले जाये।* ऐसा कह कर कर्ण वहां से चले गए।
यह देख कर अर्जुन ने कहा कि *ऐसा करने का विचार मेरे मन में क्यों नही आया?*
तब भगवान श्री कृष्ण ने जवाब दिया कि *तुम्हे सोने से मोह हो गया था। तुममें कर्ताभाव आ चूका था! तुम खुद यह निर्णय कर रहे थे कि *किस गाँव वाले की कितनी जरूरत है और उतना ही सोना तुम पहाड़ी में से खोद कर उन्हे दे रहे थे। तुम में दाता होने का भाव आ गया था! इसलिय तुमको इस सेवा में अत्यधिक थकान भी हुई और इतनी मेहनत करने के बाद आनंद भी नहीं आया!
दूसरी तरफ कर्ण ने ऐसा नहीं किया। वह सारा सोना गाँव वालों को देकर वहां से चले गए। वह नहीं चाहते थे कि *उनके सामने कोई उनकी जय जयकार करे या प्रशंसा करे। उनके पीठ पीछे भी लोग क्या कहते हैं उस से उनको कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिय ना वह थके और न ही उन्होंने मन की शांति को खोया!* यह उस आदमी की निशानी है जिसे आत्मज्ञान हांसिल हो चुका है।
*श्री कृष्ण ने खूबसूरत तरीके से अर्जुन के प्रश्न का उत्तर दिया! अर्जुन को भी अब अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था।*
हमको भी इस कलियुग में समय के महापुरुष का सानिध्य और सेवा के अवसर कर्ण-अर्जुन की तरह ही मिलते हैं! अब यह हमारी सोच पर निर्भर करता है कि *हम अर्जुन की तरह *कर्ताभाव* के बोझ तले संतापित रहते हैं या कर्ण की तरह अपने को निमित्त्त मात्र समझकर सेवाओं का आनन्द लेते हैं!*
*सेवा के बदले में धन्यवाद या बधाई की उम्मीद करना भी उपहार नहीं सौदा कहलाता है।*
यदि हम किसी भी रूप में सहयोग करना चाहते हैं तो *हमें निमित्त्त मात्र भाव के साथ इस आशा के करना चाहिए कि महापुरुष ने मुझे इस सेवा के लिय चुना ताकि इस सेवा की यादें मुझे ताजिन्दगी प्रफुल्लित कर सके, बजाय इसके पहले कि हममें कर्ताभाव का अहंकार आने लगे।*
*हम सभी के लिय नजदीक और दूर से अब आनन्दित होने के अवसर मिलने जा रहे हैं – जिनका हमें भरपूर लाभ लेना है!*
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