हमारे संतों ने श्रद्धा को विश्वास से भी ऊपर का दर्जा दिया है। 

हमारे संतों ने श्रद्धा को विश्वास से भी ऊपर का दर्जा दिया है। विश्वास और अविश्वास दोनों ही तर्क से जीते हैं। इन दोनों का भोजन तर्क है। नास्तिक तर्क देता है कि ईश्वर नहीं है। आस्तिक तर्क देता है कि ईश्वर है। लेकिन दोनों ही तर्क देते हैं और तर्क पर ही भरोसा करते हैं। मतलब, विश्वास और अविश्वास दोनों ही तर्क से चलते हैं।

लेकिन श्रद्धा बहुत बड़ी अनुभूति का नाम है। श्रद्धा के सामने तर्क नाकाफी हैं। श्रद्धा की शुरुआत ही इस बात से होती है कि तर्क पर्याप्त नहीं हैं!*

जिस व्यक्ति को यह दिखने लग जाता है कि तर्क की सीमा से आगे कुछ और भी है, उस व्यक्ति का जीवन श्रद्धा से भरपूर हो जाता है।
क्योंकि वह जान जाता है कि जीवन खुद तर्क से बाहर की कहानी है।

अगर आप ना होते तो आप किसी से भी नहीं कह सकते थे कि मैं क्यों नहीं हूं? आप हैं तो आप किसी से पूछ नहीं सकते कि मैं क्यों हूं?

महापुरुषों ने गहरी राज की बात बताई है कि जिंदगी के पास कोई तर्क नहीं है! प्रेम बिना तर्क के है! प्रार्थना भी बिना तर्क के है। इस जीवन में जो भी गहरा और महत्वपूर्ण है, वह सब तर्क से समझ नहीं आ सकता! गहरी बातें तर्क की पकड़ में आती ही नहीं और तर्क चूक जाता है! जिसको तर्क के अतर्क का पता चल जाता है – उसके कदम श्रद्धा की ओर चल पड़ते हैं। क्योंकि जब तर्क देने वाली बुद्धि थक जाती है – तो भी जीवन चलता रहता है!

मन बुद्धि और तर्कों से परे का *परम सत्य बहुत विराट है। उसकी सीमायेँ बड़ी अनंत है। उस तक पहुंचने के लिए व्यक्ति को कहीं आने-जाने की भी जरूरत नहीं है केवल उसके अन्दर श्रद्धा होनी चाहिय!* इसीलिय ही कहा गया है कि – श्रद्धावान लभते ज्ञानम!

श्रद्धा से जब ज्ञान मिलता है तो उसके बाद गुरु के वचनों के पालन में भी श्रद्धापूर्ण भाव का होना जरुरी है! तभी सेवा, सत्संग और सुमिरण का आनन्द मिल सकता है!

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