हर परीक्षा पास करने की कुन्जी- अटूट विश्वास!

हर परीक्षा पास करने की कुन्जी- अटूट विश्वास!

एक बार श्री कृष्ण जी के गुरु अपने शिष्यों के साथ कही जा रहे थे।

रास्ते में किसी जंगल में रूककर उन्होंने आराम किया। उसी के पास ही द्वारका नगरी थी।

गुरुदेव ने अपने शिष्यों को भेजा कि श्री कृष्ण को बुला कर लाओ। तब उनके शिष्य द्वारका गये और द्वारकाधीश को उनके गुरुदेव का सन्देश दिया।

सन्देश सुनते ही श्री कृष्ण जी दौड़े-दौड़े अपने गुरुदेव के पास गए और उन्हें दण्डवत प्रणाम किया साथ ही उनसे द्वारका चलने के लिए विनती की लेकिन गुरुदेव ने चलने के लिए मना कर दिया और फरमाया कि हम फिर कभी आपके पास आयेंगे।

श्री कृष्ण जी ने पुन: गुरुदेव से विनती की! तब गुरुदेव ने फरमाया कि ठीक है कृष्ण हम तुम्हारे साथ चलेंगे!

लेकिन हमारी एक शर्त है कि हम जिस रथ पर जायेंगे, उसे घोड़े नहीं खीचेंगें एक तरफ से तुम और एक तरफ से तुम्हारी पटरानी रुकमणि खीचेंगी।

श्री कृष्ण उसी समय दौड़ते हुए रुकमणि के पास गए और उन्हें बताया कि मुझे तुम्हारी सेवा की जरुरत है।

तब रुकमणि को उन्होंने सारी बात बताई तब वह दोनों अपने गुरुदेव के पास आये और उन्हें रथ पर बैठने के लिए विनती की।

जब उनके गुरुदेव रथ पर बैठे तो उन्होंने अपने शिष्यों को भी रथ पर बैठने के लिए कहा!

लेकिन श्री कृष्ण जी ने परवाह ना की क्योंकि वे जानते थे कि गुरुदेव उनकी परीक्षा ले रहे है।

रुकमणि और श्री कृष्ण जी ने रथ को खींचना आरम्भ किया और उस रथ को खींचते-खींचते द्वारका ले पहुँचे।

जब गुरुदेव द्वारका पहुँचे तो श्री कृष्ण जी ने उन्हें राज सिंघासन पर बिठाया। उनका आदर सत्कार किया फिर श्री कृष्ण जी ने अपने गुरुदेव के लिए 56 तरह के व्यंजन भी बनवाये!

लेकिन जैसे ही वह व्यंजन गुरुदेव के पास पहुँचे उन्होंने सारे व्यंजनों का तिरस्कार कर दिया।

श्री कृष्ण जी ने पुन: अपने गुरुदेव से पूछा कि गुरुदेव आप क्या लेंगे?

तब गुरुदेव ने खीर बनवाने के लिए कहा। श्री कृष्ण जी ने आज्ञा मानकर खीर बनवाई।
खीर बनकर आई वो खीर से भरा पतीला गुरुदेव के पास पहुँचा उन्होंने खीर का भोग लगाया और थोड़ी-सी खीर का भोग लगा कर उन्होंने श्री कृष्ण जी को खाने के लिए कहा‌।

उस पतीले में से श्री कृष्ण जी ने थोड़ी सी खीर को खाया।
तब उनके गुरुदेव ने श्री कृष्ण को बाकी खीर अपने शरीर पर लगाने की आज्ञा दी। श्री कृष्ण जी ने आज्ञा पाकर खीर को अपने शरीर पर लगाना शुरू कर दिया।

उन्होंने पूरे शरीर पर खीर लगा ली। लेकिन जब पैर पर लगाने की बारी आई तो श्री कृष्ण जी ने अपने गुरुदेव को अपने पैरों पर खीर लगाने के लिए मना कर दिया।

श्री कृष्ण जी ने कहा ‘हे गुरुदेव यह खीर आपका भोग-प्रसाद है, मैं इस भोग को अपने पैरों पर नहीं लगाऊंगा।’

उनके गुरुदेव श्री कृष्ण जी से बहुत खुश हुए।

उन्होंने फरमाया ‘हे कृष्ण मैं तुमसे बहुत खुश हूँ तुम हर परीक्षा में सफल रहे, मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि पूरे शरीर में तुमने जहाँ-जहाँ खीर लगाईं है वह अंग आपका वज्र के समान हो गया है! और इतिहास साक्षी है कि महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण जी का कोई भी अस्त्र-शास्त्र बाल भी बाँका नहीं कर पाया।

जो शिष्य अपने गुरुदेव की आज्ञा में तत्पर रहता है उन भक्तों को ही गुरुदेव का सच्चा प्यार और आशीर्वाद नसीब होता है!

अपने गुरु महाराज जी की सेवा में किन्तु, परन्तु, अगर, मगर लगाने की आवश्यकता ही नहीं हैं! यह बात हमारे ऋषि मुनियों ने अनेकानेक प्रसंगों के माध्यम से समझायी है! कहा है –
राम कृष्ण ते को बड़ों, तिनहूँ भी गुरु कीन!
तीन लोक के नायका, गुरु आगे आधीन!!
हम अपनी मन बुद्धि लगाकर अपने जीवन के आनंद के पलों को गवां देते हैं! थोड़ी सी परेशानी में हमारा विश्वास दम तोड़ देता है!

भगवान के परम भक्त प्रह्लाद को उसके पिता दुष्ट हिरण्यकश्यप ने बड़ा कष्ट दिया और प्रहलाद को मारने तक का प्रयास किया लेकिन वह प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं कर पाया!

क्योंकि कहते हैं कि –
जाको राखे साइयां मार सके कोय!
बाल बांका कर सके जो जग बैरी होय!!
प्रहलाद को अपने भगवान् पर अटूट विश्वास था कि जिसकी भगवान रक्षा करते हैं, उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता।

हमको भी शिष्य के नाते खुद अपने आप से पूछना चाहिय कि क्या हमारा विस्वास भी अपने मालिक के प्रति भक्त प्रह्लाद की तरह अटूट बना रह सकता है?
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