दीनबन्धु और मालती के यहाँ दो पुत्र और एक पुत्रवधु थी। एक दिन बड़ा पुत्र साँप के काटने से मर गया।

दीनबन्धु और मालती के यहाँ दो पुत्र और एक पुत्रवधु थी। एक दिन बड़ा पुत्र साँप के काटने से मर गया।
तभी एक संत आ पहुँचे। उन्होंने प्रबल भूख लगने की बात की! परिजनों ने संत की इच्छा का आदर करते हुए लाश को चादर में लपेटकर, स्नानादि कर, संत के लिय भोजन बना कर उसे परोसा गया।

संत ने कहा- मैं अकेला भोजन नहीं करता! सभी बैठो। वे बैठ तो गए पर उनको पूरी घटना बतानी पड़ी।

संत ने घर के मुखिया दीनबन्धु से कहा- तुम कैसे पिता हो? पुत्र मरा पड़ा है, तुम भोजन को बैठ गए?

दीनबन्धु बोले – महाराज, संसार में कौन पिता है? कौन पुत्र है? इस जगतसराय में सब यात्री ठहरते हैं! सुबह चल पड़ते हैं! तो मैं वृथा क्याें शोक करूं?

यह संसार तो आम का पेड़ है। कुछ फूल ही गिर जाते हैं, तो कुछ छोटे फल ही टूट कर गिर जाते हैं। जो पक जाते हैं वे भी गिर ही जाते हैं। मैं किसके लिए रोऊँ?

घर की मालकिन मालती ने कहा- महाराज, जैसे कुम्हार बर्तन बनाता है। कुछ बनने में नष्ट हो जाते हैं! कुछ बन कर तो कुछ थोड़े समय बाद टूट जाते हैं। पर अंत में सब के सब कभी न कभी टूटते ही हैं। जैसे पक्षी पेड़ पर इकट्ठा होते हैं और सुबह होते ही उड़ जाते हैं।

घर का छोटा पुत्र कहने लगा – महाराज, जगत के सब संबंध झूठे हैं। न जन्म से पहले कोई नाता है, न मृत्यु के बाद। सिवा परमात्मा के अपना है ही कौन?

जैसे बाजार में अनेक व्यापारी आते हैं। कोई किसी का कुछ नहीं होता। फिर भी हंसते , बतलाते , अपना व्यापार करते हैं। बाजार बंद होने पर सब अपनी ठौर चले जाते हैं। अपना व्यापार कर मेरा भाई भी चला गया। एक दिन मैं भी चला जाऊँगा। जिसका माल अभी बिका नहीं, वह किसी के साथ कैसे चला जाए? उसे तो अभी प्रतीक्षा करनी है।

अंत में पुत्रवधू बोली – महाराज! इस संसार में जीव का पति कौन है? क्या भगवान के सिवा और भी कोई हमारा स्वामी है? भगवान के लिए ही स्त्री लौकिक पति की भगवद् वृत्ति से सेवा करती है। जब तक भगवान ने उनकी सेवा करवानी थी, जब तक उनका मेरा साथ था- तब तक तन-मन से सेवा मेरा धर्म था। अब उन्हें वापिस बुला लिया है, तो मुझे शोक कैसा? संत-महात्मा तो भगवत भजन के लिए सन्यासी होते हैं। वैधव्य भी तो एक सन्यास ही है, जो भगवान ने कृपा करके मुझे दिया है। संसार तो हरि की लीला से है। वे हंसाते भी हैं, रूलाते भी हैं। मिला देते हैं, तो बिछुड़ा भी देते हैं। इसलिय मैं उनकी किसी लीला को देखकर शोक क्यों करूँ? इस संसार में भी हमेशा एक नाटक चलता है और हम सभी उसके पात्र हैं – सभी को उस सूत्रधार के इशारों पर चलते हैं। मुझे तो अपने अभिनय से भगवान को रिझाना है। अब तक मुझे सधवापन का पात्र मिला था, अब विधवापन का मिला गया। मैं शोक क्यों करूं?

इतने में भगवान की लीला से दीनबंधु का वह मरा बेटा अचानक जीवित हो गया।

संत ने उसे यह सब घटना और परिजनों के विचार बतलाये तो वह बेटा बोला- महाराज, धूप की तपन से बचने के लिय कुछ राहगीर एक वृक्ष के नीचे खड़े होते हैं। धूप कम हो जाने पर अपनी राह चल देते हैं। पेड़ वहीं खड़ा रह जाता है। कल फिर कुछ राही आएँगे और फिर चले जाएँगे, तब फिर आने-जाने का शोक कैसा? हजारों मनुष्य अपना लेन-देन चुकाने के लिए एकत्र होते हैं और ॠण उतरते ही अलग हो जाते हैं। तो शोक मिलने और बिछुड़ने का शोक कैसा?

इसीलिय समय के सदगुरु अब में जीने के लिय, अब का आनन्द लेने के लिय कहते हैं! जो शक्ति थी, है और रहेगी – उससे तादात्म्य स्थापित करने के लिय ही बारबार प्रेरित करते हैं! ताकि नश्वर संसार के रिश्ते नातों के होने या ना होने, उनके मिलन और विछोह का कष्ट हमें व्यथित ना करे!

मुझे आशा है आप सभी इस काल्पनिक कहानी के सार्वभोमिक सत्य को आत्मसात करते हुए – महाराजी के द्वारा बताई गयी व्यावहारिक दिशा में चलने प्रयास करेंगे और अधिकाधिक अभ्यास करके हर पल का आनन्द लेंगे!

आपका जीवन मंगलमय बना रहे!




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