Prayer is related to the soul!

प्रार्थना का सम्बन्ध आत्मा से है!

“प्रार्थना” मनुष्य के मन की समस्त चँचलता एवं अनेक दिशाओं में बहकने वाली प्रवृत्तियों को केंन्द्रित कर एकाग्र करने वाले मानसिक व्यायाम का नाम है। चित्त की सारी भावनाओं को मन के केंद्र में एकत्र कर चित्त को दृढ़ करने की एक प्रणाली का नाम प्रार्थना है।

जब मनुष्य के मन में किसी प्रकार की इच्छा उत्पन्न होती है, वह संसार के व्यतिगत, समयानुसार, अशान्त हो जाता है, कोई आश्रय नहीं दृष्टिगोचर होता, तब सब प्रकार से विवश होकर वह शक्ति और साहस के एक कल्पित मार्ग से मन में इच्छाओं की स्थापना करके आश्रय तथा सहायक की खोज में अपने ही आन्तरिक जगत् में प्रवेश करता है।

उसके अंतःकरण में ईश्वर की अमित शक्ति, अद्भुत सामर्थ्य एवं अतुलित बल की एक आत्मशक्ति निवास करती है। इस मन की सृष्टि उसकी व्यक्तिगत श्रद्धा, आत्मविश्वास एवं आस्तिकता के बल पर निर्मित होती है।

यह उसके पिछले कर्मो के चित शुभ संँस्कारों का स्थूल स्वरूप है। उसके संँस्कार ज्यों-ज्यों परिवर्तित होते हैं, त्यों-त्यों यह मन का स्वभाव बदलता और पुनः निर्मित होता है। सर्वशक्ति सम्पन्न अध्यात्म मार्ग की प्रार्थना में हम आन्तरिक आत्मशक्ति की ओर उन्मुख होते हैं।

यहीं से एक प्रकार का ऐसा बल उत्साह प्राप्त होता है, जो मन में किसी गुप्त शक्तिशाली आत्मशक्ति के भण्डार को यकायक खोल देता है।मन की यह आन्तरिक गुप्त आत्मशक्ति शरीर के कण-कण में विराजमान है।

समय के मार्गदर्शक महाराज जी की असीम कृपा से प्रार्थना की सफलता से आशा की ज्योति जगमगा उठती है! जब उनके द्वारा आत्म बोध होता है तो उस आत्मा की शक्ति से मन आत्म विभोर हो उठता है! वहाँ से ऐसी शान्तिदायक विचार धाराएँ प्रस्फुटित होती हैं, जो जीव को प्रतिपल के लिय अभय और सावधान बना देती हैं।

इसीलिय तत्वदर्शी ज्ञानी सन्तों का कथन है कि प्रार्थना का सम्बन्ध मानव के परम पुनीत तत्व आत्मा से है।

आत्मा अनन्त शक्तिवान है, सर्वगुण सम्पन्न, निर्विकार, निर्लेप है। उसमें पवित्र शक्ति का अज्ञेय खजाना है। मन इसके समीप निवास करता है। मन अन्य सब अंँगों की अपेक्षा सूक्ष्म एवंँ शक्तिशाली है। वस्तुतः जिस समय मन की शक्तियाँ आत्मविश्वास से अन्तरमुखी एकाग्र हो जाती हैं, तब इस पर आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है, जो मन को अद्भुत सामर्थ्य से सम्पन्न कर देता है। आन्तरिक दैवी प्रेरणा प्राप्त करने का नाम ही “प्रार्थना” है।

असली शान्ति समर्पण भाव तो प्रार्थना से ही सम्भव है। यह प्रार्थना अन्दर के मंदिर में होती है जिसमें तत्वदर्शी महापुरुष के मार्गदर्शन की जरुरत होती है! इसलिय असली प्रार्थना का ज्ञान भी समय के महापुरुष ही कराते हैं!
जिसके लिय बताया गया कि –
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती॥
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा॥
वह दिन-रात परम प्रकाश रूप रहता है। उसको दीपक, घी और बत्ती कुछ भी नहीं चाहिए। फिर मोह रूपी दरिद्रता समीप नहीं आती और लोभ रूपी हवा उस मणिमय दीप को बुझा नहीं सकती!
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