माता-पिता तो केवल इस शरीर को जन्म देते हैं किंतु आत्मतत्त्व का उपदेश देने वाले आचार्य (सद्गुरु) द्वारा जो जन्म होता है! वह दिव्य है! अजर-अमर है।

एक बहुत ही बड़े उद्योगपति का पुत्र कॉलेज में अंतिम वर्ष की परीक्षा की तैयारी में लगा रहता है – तो जब भी उसके पिता उसकी परीक्षा के विषय में उससे पूछते हैं तो वो जवाब में कहता है कि हो सकता है कॉलेज में अव्वल आऊँ, अगर मै अव्वल आया तो मुझे वो महंगी वाली कार ला दोगे जो मुझे बहुत पसन्द है?

तो पिता खुश होकर कहते हैं क्यों नहीं, अवश्य ला दूंगा! ये तो उनके लिए आसान था! उनके पास पैसो की कोई कमी नहीं थी।

जब पुत्र ने सुना तो वो दो गुने उत्साह से पढाई में लग गया। रोज कॉलेज आते जाते वो शो रुम में रखी कार को निहारता और मन ही मन कल्पना करता की वह अपनी मनपसंद कार चला रहा है।

दिन बीतते गए और परीक्षा खत्म हुई। परिणाम आया वो कॉलेज में अव्वल आया उसने कॉलेज से ही पिता को फोन लगाकर बताया कि वे उसका इनाम कार तैयार रखें, मैं घर आ रहा हूं।

घर आते आते वो ख्यालो में गाडी को घर के आँगन में खड़ा देख रहा था। जैसे ही घर पंहुचा उसे वहाँ कोई कार नही दिखी! वो बुझे मन से पिता के कमरे में दाखिल हुआ! उसे देखते ही पिता ने गले लगाकर बधाई दी और उसके हाथ में कागज में लिपटी एक वस्तु थमाई और कहा, लो यह तुम्हारा गिफ्ट।

पुत्र ने बहुत ही अनमने दिल से गिफ्ट हाथ में लिया और अपने कमरे में चला गया। मन ही मन पिता को कोसते हुए उसने कागज खोल कर देखा उसमे सोने के कवर में रामायण दिखी ये देखकर अपने पिता पर बहुत गुस्सा आया!

लेकिन उसने अपने गुस्से को संयमित कर एक चिठ्ठी अपने पिता के नाम लिखी कि, पिता जी, आपने मेरी कार गिफ्ट न देकर ये रामायण दी शायद इसके पीछे आपका कोई अच्छा राज छिपा होगा लेकिन मै यह घर छोड़ कर जा रहा हूँ और तब तक वापस नहीं आऊंगा; जब तक मै बहुत पैसा ना कमा लूँ और चिठ्ठी रामायण के साथ पिता के कमरे में रख कर घर छोड कर चला गया।

समय बीतता गया! पुत्र होशियार था; होन हार था – जल्दी ही बहुत धनवान भी बन गया! शादी की और शान से अपना जीवन जीने लगा! कभी-कभी उसे अपने पिता की याद आ जाती तो उसकी चाहत पर पिता से गिफ्ट ना पाने की खीज हावी हो जाती! वो सोचता माँ के जाने के बाद मेरे सिवा उनका कौन था – इतना पैसा रहने के बाद भी पिता जी ने मेरी छोटी सी इच्छा भी पूरी नहीं की! यह सोचकर वो पिता से मिलने से कतराता था।

एक दिन उसे अपने पिता की बहुत याद आने लगी और उसको महसूस होने लगा कि क्या मैं छोटी सी बात को लेकर अपने पिता से नाराज हुआ – अच्छा नहीं हुआ!

ये सोचकर उसने पिता को फोन लगाया! बहुत दिनों बाद पिता से बात कर रहा हूँ ये सोच धड़कते दिल से रिसीवर थामे खड़ा रहा! तभी सामने से पिता के नौकर ने फ़ोन उठाया और उसे बताया कि मालिक तो दस दिन पहले स्वर्ग सिधार गए और अंत तक तुम्हें याद करते रहे और रोते हुए चल बसे!

जाते समय कह गए कि अगर मेरे बेटे का फोन आया तो उसे कहना कि आकर अपना व्यवसाय सम्भाल ले! तुम्हारा कोई पता नहीं होनेे से तुम्हे सूचना नहीं दे पाये।

यह जानकर पुत्र को गहरा दुःख हुआ और दुखी मन से अपने पिता के घर रवाना हुआ! घर पहुच कर पिता के कमरे गया और उनकी तस्वीर के सामने रोते हुए रुंधे गले से उसने पिता का दिया हुआ गिफ्ट रामायण को उठाकर माथे पर लगाया और उसे खोलकर देखा!

पहले पन्ने पर पिता द्वारा लिखे वाक्य पढ़ा जिसमे लिखा था – “मेरे प्यारे पुत्र, तुम दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की करो और साथ ही साथ मन तुम्हें कुछ अच्छे संस्कार दे पाऊं; ये सोचकर ये रामायण दे रहा हूँ!”

पढ़ते वक्त उस रामायण से एक लिफाफा सरक कर नीचे गिरा – जिसमे उसी गाड़ी की चाबी और नगद भुगतान वाला बिल रखा हुआ था।

ये देखकर उस पुत्र को बहुत पछतावा हुआ और धड़ाम से जमींन पर गिर रोने लगा। लेकिन कहावत है ना कि –
अब पछताए क्या होत है, जब चिडीया चुग गयी खेत!

उस बच्चे कि तरह हम भी हमेशा हमारा मनचाहा उपहार हमारी पैकिंग में ना पाकर उसे अनजाने में खो देते हैं!

जैसे उसके पिता ने उसके सुखी जीवन की परिकल्पना अपने तरीके से की, उसको धनवान के साथ ही संस्कारवान बनाने का मंशा से रामायण भी दी परन्तु उसके अन्दर अपने पिता के प्रति विश्वास की कमी और मनचाहे चीजों को किसी भी तरह हासिल करने की ललक ने उसके जीवन सुनहरे पल खो दिए जब वे दोनों एक साथ उस शानोशौकत का भरपूर आनन्द लेते!

वैसे ही हम भी परमपिता परमात्मा के संदेश को ना समझकर; अपनी सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति करने में इतना लिप्त हो जाते हैं कि हमें भी परमपिता परमात्मा के सानिध्य के पलों से बंचित होना पड़ता है!
अंततः उन परमानन्द से वंचित पलों के खो जाने का मलाल बना रहता है!
इसलिय हर पल सजग होकर अपने माता-पिता और मार्गदर्शक की आज्ञा का अनुसरण कर जीवन का आनन्द लेना चाहिय!

धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्मजी से पूछाः “पितामह ! धर्म का रास्ता बहुत बड़ा है और उसकी अनेक शाखाएँ हैं। उनमें से किस धर्म को आप सबसे प्रधान एवं विशेष रूप से आचरण में लाने योग्य समझते हैं, जिसका अनुष्ठान करके मैं इस लोक व परलोक में भी धर्म का फल पा सकूँगा?“

भीष्मजी ने कहाः-
मातापित्रोर्गुरूणां च पूजा बहुमता मम।
इह युक्तो नरो लोकान् यशश्च महदश्नुते।।

‘राजन ! मुझे तो माता-पिता तथा गुरुओं की पूजा ही अधिक महत्त्व की वस्तु जान पड़ती है। इस लोक में इस पुण्यकर्म में संलग्न होकर मनुष्य महान यश और श्रेष्ठ लोक पाता है।’
(महाभारत, शांति पर्वः 108.3)
दस श्रोत्रिययों (वेदवेत्ताओं) से बढ़कर है – आचार्य (कुलगुरु), दस आचार्यों से बड़ा है- उपाध्याय (विद्यागुरु), दस उपाध्यायों से अधिक महत्त्व रखते हैं – पिता और दस पिताओं से भी अधिक गौरव है माता का। माता का गौरव तो सारी पृथ्वी से भी बढ़कर है मगर आत्मतत्त्व का उपदेश देने वाले गुरु का दर्जा माता-पिता से भी बढ़कर है।

माता-पिता तो केवल इस शरीर को जन्म देते हैं किंतु आत्मतत्त्व का उपदेश देने वाले आचार्य (सद्गुरु) द्वारा जो जन्म होता है! वह दिव्य है! अजर-अमर है।
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