भ्रम और वास्तविकता

*भ्रम और वास्तविकता*

बार एक धनवान व्यक्ति ने अपने घर की सारी दीवारों पर कांच की टुकड़ियां लगवा रखीं थीं !

उससे घर में हजारों दर्पण नजर आ रहे थे!
एक ही आदमी के हजारों आदमी नजर आते थे!

एक बार इस सम्राट के महल में एक कुत्ता घुस गया।

कांच के टुकड़ों में अपनी परछाई देख कर वह कुत्ता तो बड़ी मुश्किल में फंस गया!

उसने यह देखा कि *हजारों कुत्ते उसे घूर रहे हैं! वह डरकर भौंकने लगा।*

ध्यान रहे कि *जो डरते हैं, वही भौंकते हैं वर्ना निडर हमेशा आश्वस्त और शान्त रहता है!*

भौंकने से भौंकने वाले को तसल्ली मिलती है कि *हम डरे नहीं हैं, हम तो डरा रहे हैं।*

सच तो यह है कि *डराने की चेष्टा करना ही डरना होता है। दूसरों को वही डराता है, जो खुद डरा हुआ होता है।*

वह कुत्ता जोर से भौंका तो *दर्पण के सब कुत्ते भी एक साथ उसको भौंकते दिखाई दिए। इससे वह तो और भी घबरा गया!*

उसको महसूस हुआ कि *यह क्या उसे तो एक साथ हजारों दुश्मनों ने उसे घेर लिया!*

उसको अपनी सुरक्षा का एक ही उपाय सूझा – *हमला!*

उसने भागकर दर्पणों पर हमला किया। *दर्पणों के हजारों कुत्तों ने भी तब अपनी जवाबी कार्रवाई कर डाली!*

आखिरकार *वह कुत्ता पागल हो गया व अगले दिन मरा हुआ पाया गया!*

संत महापुरुषों के अनुसार;
*इस अस्तित्व के साथ हम जो कुछ भी भाव बनाते हैं उसकी प्रतिध्वनियां भी गूंजने लगती हैं!*
*हम भी किसी ना किसी डर के कारण किसी ना किसी तरह डर के शिकार बन जाते हैं!*

अपनी अभिलाषा की पूर्ति ना होते देख हम शत्रुता की नजरों से देखना शुरु करते हैं तो हमको आभास होता है कि *हमारे चारों तरफ शत्रु खड़े हो रहे हैं!*

जब हम सभी को प्रेमपूर्वक देखने लग जायेंगे तो *हमको कोई शत्रु नजर नहीं आएगा! सभी मित्र नजर आएंगे!*

असल में, *हम अज्ञानता के कारण खुद ही फैल कर गूंजने लगते हैं। हमारी खुद की ही प्रतिध्वनि (आवाज) अपने को ही सुनाई पड़ने लग जाती है!*

हमें समय के महापुरुष यही संदेश देते हैं कि *अपने इस अस्तित्व के साथ मित्रता करो, अपने आप को जानो! तब परस्पर प्रेम, विश्वास, सहयोग और समर्पण के अर्थ समझ में आने लगेंगे!*

प्रश्न यही है कि *क्या हम अपने से प्रेम करते हैं? यदि हां, तो हम सबसे प्रेम करने लगेंगे!*

*जब हम सभी को दिल से प्रेम करने लगोगे तो हमको लगने लगेगा कि सभी हमसे प्रेम कर रहे हैं!*

प्रेम के मारग में कई लोग अपने कपोलकल्पित तर्कों के माध्यम से विजय पाना चाहते हैं!

लेकिन प्रेम का संबंध तो हृदय से है! जब हम अपने आप से प्रेम करने लगते हैं तो *हमारा प्रेम का नाता अजर अमर बन जाता है!*

इसलिए समय के सतगुरु भी हमें *परस्पर प्रेम और भक्ति का पाठ पढ़ाते हैं ; सत्संग, सेवा, सुमिरन व ध्यान सिखाते हैं! अगर हम जीवन का जीते जी असली आनन्द पाना चाहते हैं तो हमको “प्रेम की पाठशाला” में जाकर प्रेम का पाठ सीखना ही पड़ेगा!*

कहा भी है कि –
*प्रबल प्रेम के पाले पड़कर,*
*प्रभु को नियम बदलते देखा!*

*अपना मान भले टल जाए,*
*पर जन का मान ना टलते देखा!*
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*सुप्रभात*
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