दुःख और सुख – एक अवस्था है!
अक्सर समझा जाता है कि –
सुख पाना हमारी जन्मजात अभिलाषा है!
जबकि कोइ सपने में भी दुःख पाने की कल्पना नहीं करता है!
हमारा हर प्रयास सुख पाने के लिय ही होता है
लेकिन बिन बुलाये मेहमान की तरह हमारे जीवन में दुःख मौजूद रहता है!
यद्यपि
“सुख”‘और “दुःख” परस्पर विरोधी हैं।
एक को दूसरा काटता है।
“सुखी” और “दुःखी” दो विपरीत स्थिति के व्यक्ति हैं!
पर गहराई से विचार करने पर दूसरी ही बात सामने आती है ।
चिंतक बताते हैं कि-
दुःख और सुख एक दूसरे के पूरक हैं!
“दुःख” नग्न सत्य है!
और “सुख” तो उसको सुसज्जित करने वाला परिधान अलंकार मात्र है।
जैसे –
पुत्र प्राप्ति की मुस्कान के पीछे माता की प्रसव पीड़ा झाँकती है।
आज का गौरवान्वित कंठाभूषण;
कल सुनार की भट्टी में तप रहा था
और हथौड़ों की चोट खा रहा था!
आग पर पकाए बिना स्वादिष्ट भोजन बन सकना कैसे संभव हो सकता है?*
“दुःख” बड़ा भाई है और “सुख” छोटा ।
“दुःख” पहले पैदा हुआ, “सुख” बाद में!
दोनों चिरंतन सहचर हैं,
इनकी एकता को कोइ तोड़ नहीं सकता!
“दुःख” को स्वेच्छापूर्वक वरण किए बिना –
“सुख” का सौभाग्य नहीं पाया जा सकता ।
लेकिन, समय के सद्गुरु समझाते हैं कि –
तुम अपने जीवन में
यदि सुख का अनुभव करना चाहते हो –
तो सुख का अनुभव
दुख की अवस्था में भी किया जा सकता है!
कैसे?
ठीक वैसे ही जैसे कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि –
हे अर्जुन, तू युद्ध भी कर और सुमिरन भी कर!
बात गहरी है तो जरा गहराइ से विचार कीजिय!
कयोंकि महसूस तो खुद को ही करना होगा!
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