भक्त और भगवान्

भक्त और भगवान्*
भगति कि साधन कहउँ बखानी।
सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी॥

मित्रों, जिस दिन भक्ति खो गई समझो उस दिन धर्म भी खो गया!
भक्ति है तो भगवान हैं!
और उनका भक्त भी, भक्ति के हटने पर धर्म कट्टर सिद्धांत के संपुट में बंद हो जाता है और मजहबी उन्माद बनकर सामाजिक समरसता को भंग कर सकता है!
परमात्मा को तभी जाना जा सकता है जब भक्ति का आनंद आंसू बनकर झरने लगता है।

प्रकृति के चारों तरफ उत्सव ही उत्सव है!
पक्षियों के कलरव में, पहाड़ों के सन्नाटो में, वृक्षों के शीतलताओ में, सागरों के गहराईयों में परमात्मा मौजूद है!
आप अगर ऐसा नहीं देख पा रहे हैं तो इसके लिए स्वयं जिम्मेदार हैं!
उत्सवी भक्ति परमात्मा से मिलाती है शास्त्र की बुद्धिविलासी चर्चाओं में वह नहीं है।

जब भाव विभोर होकर भक्त नाचता है तभी भगवान प्रकट होते हैं!
भक्ति में अद्भुत शक्ति होती है, यह भक्ति ईश्वर को भी प्रभावित करती है और उन्हें भक्त को गले लगाने के लिए मजबूर कर देती है!
सच्चे मन से की जाने वाली भक्ति कभी निष्फल नहीं जाती!
ईश्वर उनकी अवश्य सुनता है जो उसे साफ मन से याद करते हैं!
सच्चा भक्त मिल गया तो समझे कि भगवान तुरंत मिलने वाले हैं।

जब तक हृदय की वीणा नहीं बजेगी तब तक परमात्मा समझ में नहीं आएगा! धर्म तर्क-वितर्क का विषय नहीं है! जैसे भोगी शरीर में उलझा रहता है वैसे बुद्धिवादी बुद्धि में उलझे रहते हैं! अंत में दोनों चूक जाते हैं, क्योंकि भगवान हृदय में है, परमात्मा इतना छोटा नहीं है कि उसे बुद्धि में बांधा जाये इसलिये परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं है।

प्राणों में प्रेम के गीत उठते ही भगवान् भक्त के पास दौड़े चले आते है! भक्ति प्यास कि तरह ही है, जब धरती भीषण गरमी में प्यास से तड़पने लगती है तभी बादल दौड़े हुए आते हैं और उसकी प्यास बुझाते हैं।

जब भीतर विरह की अग्नि जलेगी तभी प्रभु की करुणा बरसेगी! छोटा शिशु जब पालने पर रोता है तो मां सहज ही दौड़ी चली आती है! इसी तरह भक्त के भजन में ऐसी ताकत होती है कि भगवान अपने को रोक नहीं सकते, आखिर सारे भजन तो तड़पते भक्त के आंसुओं की ही छलकन हैं।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।
प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं!
श्रवण (परीक्षितजी की तरह), कीर्तन (शुकदेवजी की तरह), स्मरण (प्रह्लादजी की तरह), पादसेवन (लक्ष्मीजी की तरह), अर्चन (पृथुराजा की तरह), वंदन (अक्रूरजी की तरह), दास्य (हनुमानजी की तरह), सख्य (अर्जुन की तरह) और आत्मनिवेदन (बलि राजा की तरह) इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।




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