glory of satsang

सतसंग की महिमा

अशान्ति, परेशानियाँ तब शुरू हो जाती हैं । जब मनुष्य के जीवन में सतसंग नहीं होता।

मनुष्य का जीवन आगे बढ़ता चला जा रहा है। लेकिन मनुष्य इस बारे में नहीं सोचता कि जीवन को कैसे जीना चाहिए!
मनुष्य ने धन कमा लिया, मकान बना लिया, शादी घर परिवार बच्चे सब हो गये, गाड़ी खरीद ली, – यह सब कर लेने के बाद भी मनुष्य का जीवन सफल नहीं हो पायेगा।

क्योंकि जिसके लिए यह जीवन मिला उसको तो मनुष्य ने समय दिया ही नहीं और संसार की वस्तुयें जुटाने में समय नष्ट कर दिया।
जीवन मिला था भगवान के भजन सुमिरण के लिए।
लेकिन मनुष्य माया का दास बनकर माया की प्राप्ति के लिए इधर – उधर भटकने लगता है और इस तरह मनुष्य का यह कीमती जीवन नष्ट हो जाता है।

जिस अनमोल रतन मानव जीवन को पाने के लिए देवता लोग भी तरसते रहते हैं। उस मानव जीवन को मनुष्य ब्यर्थ गवाँ देता है।

देवता लोगों के पास भोगों की कमी नहीं है! लेकिन फिर भी देवता लोग मनुष्य जीवन जीना चाहते हैं।

क्योंकि मनुष्य देह पाकर ही भक्ति का पूर्ण आनन्द और श्री गुरू महाराज जी की सेवा और सन्तों की कृपा से सतसंग का सानिध्य मिलता है।

सन्तो के संग से मिलने वाला आनन्द तो बैकुण्ठ में भी दुर्लभ है।

कबीर जी कहते हैं कि –
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय!
जो सुख साधु संग में, सो बैकुण्ठ न होय!

रामचरित्रमानस मेंं भी लिखा है कि–
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिए तुला एक अंग!
तुल न ताहि सकल मिली, जो सुख लव सतसंग!
हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जायें।
तब भी वह सब सुख मिलकर भी दूसरे पलड़े पर रखे हुए सत्संग बराबर नहीं हो सकते। जो क्षण मात्र की सतसंग से मिलता है ।

सतसंग से मनुष्य को जीवन जीने का तरीका पता चलता है।

सतसंग से ही मनुष्य को अपने वास्तविक कर्तव्य का पता चलता है।
मानस में लिखा है कि –
सत संगत मुद मंगल मूला!
सोईं फल सिद्धि सब साधन फूला!
अर्थात सतसंग सब मंँगलों का मूल है।

जैसे फूल से फल और फल से बीज और बीज से बृक्ष होता है । उसी प्रकार सतसंग से विवेक जागृत होता है और विवेक जागृत होने पर भगवान से प्रेम होता है और प्रेम से प्रभु की प्राप्ति होती है। सतसंग से मनुष्य के करोड़ों – करोड़ों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं – सतसंग से मनुष्य का मन बुद्धि शुद्ध होती है। सतसंग से ही भक्ति मजबूत होती है ।भगवान की जब कृपा होती है । तब मनुष्य को सतसंग और सन्तों का संग प्राप्त होता है।

कहा है –
एक घडी आधी घडी आधी ते पुनि आध!
तुलसी संगत साध की हरे कोटि अपराध!

आज मनुष्य हर पल चिन्तित रहने लगता है और हमेशा परेशान रहता है।

इन सब का कारण अज्ञानता है!
जब हम कोई मशीन घर में लेकर आते हैं तो उसके साथ एक बुकलेट भी मिलती है । जिसमें मशीन को कैसे चलाना है, इस बारे में लिखा होता है।

उसी प्रकार भगवान ने जब यह मानव शरीर दिया और इस मानव जीवन को सफल कैसे करना है – यह भी वेद-शास्त्र रुपी बुकलेट के सतसंग और सन्तों से पता चलता है।

इसलिए जीवन से सतसंग को अलग नहीं करना चाहिए!

जब सतसंग जीवन में नहीं रहेगा तो संसार के प्रति आकर्षण बढ़ेगा और संसार के प्रति मोह, मनुष्य के जीवन को विनाश की तरफ ले जाता है।

सतसंग की अग्नि में मनुष्य के सारे विकार नष्ट हो जाते हैं –

आनन्द कहीं बाहर नहीं है वो भीतर ही है लेकिन मनुष्य के मन के चारों तरफ संसार के मोह की चादर लपेट रखीं है।

इसलिए वो आनन्द ढक जाता है और महसूस नहीं होता – और जब सतसंग से और गुरु दरबार की सेवा से, महाराज जी के दर्शन करने से मोह रुपी चादर हट जाती है।

तब आनन्द ही आनन्द मिलने लगता है। जीवन में जो भी अशान्ति, परेशानी, विकार आदि रहते हैं उनको सतसंग हटा देता है और मनुष्य को एक निर्मल चरित्र बना देता है । इसलिए कहा है कि –
जाने बिनु न होय परतीति,
बिनु परतिती होई न प्रीति!!

जब तक श्री गुरु महाराज जी के चरणों में पूर्ण समर्पण नहीं होगा।तब तक विवेक जागृत नहीं होगा –
बिनु सतसंग विवेक न होई –

इसलिए जीवन में सतसंग को हमेशा बनाये रखना चाहिए और जब भी जहांँ भी सतसंग सुनने या सतसंग में जाने का मौका मिले तो दुनिया वालों की परवाह कियें बिना ही पहुंँच जाना चाहिये!

  जय सच्चिदानन्द

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