हृदय के आनन्द और मानसिक आवेगों का सामंजस्य!
👉 ईर्ष्या, द्वेष, शोक-संताप, क्रोध, आवेश, रोष की मानसिक उत्तेजना में मानसिक शक्ति का बुरी तरह विनाश होता है जो सृजनात्मक कार्यों में लगा दिए जाने पर असाधारण उपलब्धियाँ प्रस्तुत कर सकती थी ।
कहते हैं कि एक घंटे का क्रोध एक दिन के बुखार से अधिक शक्ति नष्ट करता है!
चिंता, निराशा, भय, आशंका जैसे थकान उत्पन्न करने वाले अवसाद और क्रोध, प्रतिशोध, द्वेष जैसे आवेश दोनों ही ज्वार-भाटों की तरह अवांछनीय उद्वेग उत्पन्न करते हैं ।
इस जंजाल में मनुष्य को अपनी उस क्षमता को व्यर्थ नष्ट करना पड़ता है – जो यदि सृजनात्मक दिशा में लगी होती तो चमत्कार उत्पन्न किया होता।
👉 प्रतिकूल परिस्थितियों में अवसाद और आवेश आता है, यह ठीक है, पर यह तो अनगढ़ स्थिति हुई ।
परिष्कृत मन:स्थिति में इन आवेगों पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है।
उत्तेजना पर नियंत्रण प्राप्त करके उसे अर्ध उन्माद बनने से रोका जा सकता है।
इस बचत को उस उपाय में लगाया जा सकता है जिससे प्रतिकूलताओं से जूझने के उपाय सोचने और उन्हें निरस्त करने के साधन जुटाना संभव हो सके!
उद्विग्न रहने से प्रतिकूलताएँ घटती नहीं, बढ़ती है।
उत्तेजित मस्तिष्क निवारण का मार्ग नहीं खोज सकता वरन् हड़बड़ी में ऐसे कदम उठा लेता है जो नई विपत्ति खड़ी करते हैं और प्रतिकूलता की हानि कई गुनी बढ़ जाती है ।
परिस्थिति जन्य प्रतिकूलता जितनी हानि नहीं पहुँचाती है उससे अधिक स्वनिर्मित उद्विग्नता के कारण उत्पन्न होती है ।
इस तथ्य को यदि समझा जा सके तो प्रतीत होगा कि मनोनिग्रह की जीवन में कितनी बड़ी आवश्यकता है।
अनगढ़ मस्तिष्क इतनी अधिक विपत्ति उत्पन्न करता है कि जिसकी तुलना में परिस्थिति जन्य कठिनाइयों को स्वल्प ही कहा जा सकता है ।
मन की सूक्ष्म शरीर से साधना करके उन स्वनिर्मित असंतुलनों से बचा जा सकता है – जो जीवन को संकटग्रस्त बनाने के बहुत बड़े कारण बने रहते हैं!
मन के द्वंद के कारण हम अवसाद की स्थिति में जाकर परेशान होते हैं जबकि यह संभावना भी हमारे अंदर है कि हम मन के शोर शराबे को नजरंदाज करके अपने हृदय की मधुर सन्देश की ओर ध्यान दें; जो हमें हमारे ही अन्दर बैठे अविनाशी से मिलाकर परम आनन्द की अनुभूति दे सकता है!
लेकिन दोनों संभावनाएं हमारे ही प्रयासों पर निर्भर करती है कि हम द्वंद में रहें या आनन्द में!
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