लोकसेवा से प्रसिद्धि
बहुत पहले संजय नाम का एक नवयुवक था। वह हमेशा साधु-महात्माओं का दर्शन किया करता था। उसके लिए वह मठों में तथा तीर्थों में भ्रमण करता था। एक बार वह किसी योगी के साथ रहा। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर योगी ने कहा- ’’हे वत्स! यदि तुम्हारी कोई इच्छा हो तो मैं उसे पूरी कर सकता हूँ।’’ संजय ने हाथ जोङकर कहा, ’’मैं योग का रहस्य जानना चाहता हूँ, इस चमत्कार से ख्याति प्राप्त करना चाहता हूँ।’’
योगी ने उसे योगाभ्यास कराया। उससे संजय ने अपने में विचित्र शक्ति का अनुभव किया। कुछ समय बाद संजय अकेला घूमने निकला। मार्ग में उसने देखा कि कुछ शिकारी लोहे के पिंजरे में सिंह को डाल कर ले जा रहे थे। संजय न अपना योगबल दिखाने के लिए मन्त्रपाठ किया। मन्त्र पढ़ने के साथ ही भयंकर सिंह पिंजरे से निकला। सिंह ने निकल कर शिकारी को मार दिया। अन्य शिकारियों ने पुनःसिंह को पकङ लिया। इस प्रकार उसे देखकर संजय ने हँसते हुए कहा, ’’क्या फिर सिंह को भगा दूँ?’’
शिकारी संजय को जादूगर जान कर मारने दौङा। संजय बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पङा। वह किसी तरह आगे चला। एक पर्वतीय गाँव में, उसने देखा कि लोग पहाङों की अधिकता से खेती करने में असमर्थ हैं। यदि मैं पर्वतों को हटा दूँ तो लोग मेरा सत्कार करेंगे। उसने मन्त्र पाठ किया। धीरे-धीरे पर्वत निकल-निकल कर टूटने आरम्भ हुए। गाँव के घर नष्ट होने लगे। लोग संजय की शरण में गये। संजय पर्वतों को चलाना तो जानता था किन्तु उन्हें रोक नहीं सकता था। इसलिए वह उनका उद्धार न सकता था। लोग संजय को मारने लगे। संजय किसी तरह भाग छूटा और मछुओं के गाँव में पहुँचा जहाँ मछलियों का अभाव था। संजय ने मछुओं को बुलाकर कहा, ’’आज मैं योग का चमत्कार दिखाता हूँ, आप लोग ठहरिये।’’ उसने मन्त्र बल से तालाबों में मछलियाँ भर दीं। मछुओं ने जाल बाँध दिये। घर-घर लोग मछलियाँ पकाने लगे। संजय की महिमाा सर्वत्र फैल गई।
यह एक विचित्र संयोग रहा कि वे मछलियाँ जहरीली थीं। जिन लोगों ने मछलियाँ खाई थीं वे पहले ही मरणासन्न हो गये, कुछ मर गये। बचे हुए लोगों ने लाठियों से संजय को मारना शुरू किया। उनकी चोट से वह पृथ्वी पर गिर पङा। ग्रामीणों ने उसको मरा हुआ मान कर जंगल में गिरा दिया।
आधी रात में जब संजय को होश आया तो वह चिल्लाया। वह स्वयं उठकर नहीं चल सकता। उस जंगल में एक साधु रहता था। जब उसकी चीत्कार सुनी तो साधु ने संजय को उठाया और अपने आश्रम में ले गया। औषधियांे से उसकी पीङा को शान्त किया। प्रातःकाल संजय ने सारी कहानी महात्मा को सुनाई। संजय ने कहा, ’’मैं अलौकिक शक्ति वाला हूँ किन्तु न मेरी प्रतिष्ठा है न मुझे शान्ति है, मैं नहीं जानता कि इसका क्या कारण है?’’
महात्मा ने कहा- ’’हे संजय! इसमें तुम्हारा ही दोष है, तू अपनी शक्ति का सदुपयोग करना नहीं जानता। अहंकार युक्त होकर व्यर्थ ही मिथ्या विज्ञापन और कौतुक प्रदर्शित करते हो। शक्ति का उपयोग तो अहंकार त्याग कर दीनों की सेवा करना है। इसी से यश और सुख प्राप्त होता है। कौतुक तो जादूगर करते हैं।’’ संजय का अज्ञान नष्ट हुआ। महात्मा से लोकशिक्षण की शिक्षा पाकर संजय समाज सेवा में लग गया। उसने अपनी शक्ति का सदुपयोग किया। उसके प्रभाव से कुछ समय बाद उसने संसार में कीर्ति प्राप्त की।
मित्रों” हमें अहंकार को त्याग देना चाहिए तथा परोपकारी कार्य करने चाहिए।
सदैव प्रसन्न रहिये।
जो प्राप्त है, पर्याप्त है।।
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