वैरागी कौन ??
एक साधु को एक नाविक रोज इस पार से उस पार ले जाता था, बदले मैं कुछ नहीं लेता था, वैसे भी साधु के पास पैसा कहां होता था।
नाविक सरल था, पढा लिखा तो नहीं, पर समझ की कमी नहीं थी। साधु रास्ते में ज्ञान की बात कहते, कभी भगवान की सर्वव्यापकता बताते और कभी अर्थसहित श्रीमदभगवद्गीता के श्लोक सुनाते।
नाविक मछुआरा बङे ध्यान से सुनता, और बाबा की बात ह्रदय में बैठा लेता।
एक दिन उस पार उतरने पर साधु नाविक को कुटिया में ले गये और बोले, वत्स, मैं पहले व्यापारी था, धन तो कमाया था पर अपने परिवार को आपदा से नहीं बचा पाया था। अब ये धन मेरे किसी का काम का नहीं। तुम ले लो, तुम्हारा जीवन संवर जायेगा, तेरे परिवार का भी भला हो जाएगा।
नाविक बोला, नहीं बाबाजी, मैं ये धन नही ले सकता, मुफ्त का धन घर में जाते ही आचरण बिगाड़ देगा, कोई मेहनत नहीं करेगा, आलसी जीवन लोभ लालच और पाप बढायेगा।
आप ही ने मुझे ईश्वर के बारे में बताया! मुझे तो आजकल लहरों में भी कई बार वो नजर आता है। जब मै उसकी नजर में ही हूँ तो फिर अविश्वास क्यों करूं? मैं अपना काम करूं और शेष उसी पर छोङ दूं।
प्रसंग तो समाप्त हो गया, पर एक सवाल छोड़ गया, इन दोनों पात्रों में साधु कौन था ?
एक वो था; जिसने दुःख आया, तो भगवा पहना, संन्यास लिया, धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया, याद किया और समझाने लायक स्थिति में भी आ गया लेकिन फिर भी धन की ममता नहीं छोङ पाया और सुपात्र की तलाश करता रहा।
और दूसरी तरफ वो निर्धन नाविक, सुबह खा लिया, तो शाम का पता नहीं, फिर भी पराये धन के प्रति कोई ललक नहीं! संसार में लिप्त रहकर भी निर्लिप्त रहना आ गया! भगवा नहीं पहना, सन्यास नहीं लिया, पर उस का ईश्वरीय सत्ता में विश्वास जम गया!
उसने श्रीमदभगवद्गीता के श्लोक को ना केवल समझा बल्कि उन्हें व्यवहारिक जीवन में कैसे उतारना है ये सीख गया, और पल भर में धन के मोह को ठुकरा गया।
आप भी विचार कीजिए कि वास्तव में वैरागी कौन? और स्वयं के जीवन का अवलोकन कीजिए कि हमारे अन्दर उस अविनाशी के प्रति कितना प्रगाढ़ विश्वास है!
अकर्मण्य बनकर नहीं कर्म करके उसके परिणाम को उस अन्दर के साक्षी के समक्ष अपने को समर्पित करने का भाव ही वैराग्य की उच्चतम अवस्था है! जहां आनंद, शान्ति, करुणा, दयाभाव के अलावा कुछ भी नहीं है!
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