सम्बन्ध- स्वार्थ के!
एक बूढ़ा मर रहा था। मरा नहीं था, बस मर ही रहा था।
उसके चार बेटे उसके पास ही खड़े थे।
उनके नाम थे- सोम, मंगल, बुध, वीर। वह चाहता तो सात बेटे था, पर मंहगाई के चलते चार पर ही संतोष कर लिया था।
ये चारों बेटे आपस में अपने पिता की अंतिम यात्रा की तयारी कर रहे थे –
पहला बेटा सोम सलाह देता है कि, भाई! जब पिताजी मर जाएँगे तो उनकी शवयात्रा हम गुप्ता जी की मर्सिडीज़ में निकालेंगे। लोग भी तो देखें कि किसका बाप मरा है।
दूसरे बेटे मंगल ने कहा – भैया! गुप्ता जी कार दे तो देंगे पर सारी उम्र सुनाएँगे कि तुम्हारा बाप मरा था, तो मैंने कार दी थी। मैं अपने दोस्त बंटी की होंडा माँग लाऊँगा। होंडा भी कोई छोटी कार नहीं।
तीसरा बेटा बुध कहने लगा – अरे मंगल भाई! मालूम भी है कि होंडा धुलवाना कितना मंहगा है?
मैंने कल ही अपनी आल्टो ठीक करा ली है, उसी में ले चलेंगे। कार तो कार है, छोटी हो या बड़ी? और सारी जिंदगी पिताजी ने कंजूसी में बिताई है, क्या यह बात लोग नहीं जानते?
इतने में चौथे बेटे वीर ने भी अपनी राय दी कि – देखो भैया! बुरा न मानना। आल्टो में पिताजी की लाश ले तो जाएँगे पर फिर हमेशा उसमें बैठते वहम आया करेगा। श्मशान वालों ने इस काम के लिए एक ठेला बनाया हुआ है। अब कार हो या ठेला, मरने वाला तो मर ही गया, तब क्या फर्क पड़ता है?
जैसा कि शुरुआत में बताया कि अभी बूढ़ा मर रहा था, मरा नहीं था और वह तो अपने बेटों की बातों सब सुन रहा था।
वह बूढा व्यक्ति उठ कर बैठ गया और बोला- मेरी साइकिल कहाँ है? मेरी साइकिल लाओ! वह उठा और साइकिल चलाकर श्मशान घाट पहुँच गया! साइकिल से उतरा! साइकिल खड़ी की, भूमि पर लेटा और मर गया।
यही जगत के संबंधों की सच्चाई है। प्राण छूट जाने पर इस शरीर को कोई नाम ले कर भी नहीं बुलाता, सभी “लाश-लाश” कहते हैं। अभी भी समय है, जीते जी अपने अन्दर बैठे असली भगवान् से अपना संबंध बना लो। यही श्रेयष्कर होगा!
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सुप्रभात और सादर जय सच्चिदानंद
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