जब तक व्यक्ति के भीतर पाने की इच्छा शेष है, तब तक उसे दरिद्र ही समझना चाहिए।
श्री सुदामा जी को गले लगाने के लिए आतुर श्री द्वारिकाधीश इसलिए भागकर नहीं गए कि सुदामा के पास कुछ नहीं है अपितु इसलिए गए कि सुदामा के मन में कुछ भी पाने की इच्छा अब शेष नहीं रह गयी थी।।
इसलिए ही संतों ने कहा है कि जो कुछ नहीं माँगता उसको भगवान स्वयं अपने आप को दे देते हैं।
द्वारिकापुरी में आज सुदामा राजसिंहासन पर विराजमान हैं और कृष्ण समेत समस्त पटरानियाँ चरणों में बैठकर उनकी चरण सेवा कर रही हैं। सुदामा अपने प्रभाव के कारण नहीं पूजे जा रहे हैं अपितु अपने स्वभाव और कुछ भी न चाहने के भाव के कारण पूजे जा रहे हैं।।
सुदामा की कुछ भी न पाने की इच्छा ने ही उन्हें द्वारिकापुरी के सदृश भोग ऐश्वर्य प्रदान कर दिया। मानो कि भगवान ये कहना चाह रहे हों कि जिसकी अब और कोई इच्छा बाकी नहीं रही वो मेरे ही समान मेरे बराबर में बैठने का अधिकारी बन जाता है।
मनुष्य की निष्कामता अथवा कामना शून्यता ही उसे अबसे अधिक मूल्यवान,अनमोल और उस प्रभु का प्रिय बना देती है।
जिसके जीवन में कामना नहीं होती उसे दु:खों का सामना भी नहीं करना पड़ता है।
जिसमें डिमांड नहीं होती वो ही डायमंड होता है!
इसलिय भक्त को याद रखना चाहिय कि –
जब भी वह समय के महापुरुष के चरणों में जाये उसको कभी भी डिमाण्ड और कमांड की इच्छा त्याग देनी चाहिय!
और शरणागत भाव से सेवा करते हुए उनके द्वारा प्रदत्त ज्ञान का अभ्यास करना चाहिय!
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