The witness of our deeds – resides within us!

हमारे कर्मों का साक्षी – हमारे ही अन्दर विराजमान है!

बात पुरानी बात है, उन दिनों आज की तरह स्कूल नही होते थे! गुरुकुल शिक्षा प्रणाली थी और छात्र गुरुकुल में ही रहकर पढ़ते थे! उन्हीं दिनों की बात है!

एक विद्वान पण्डित थे, उनका नाम था- राधे गुप्त! उनका गुरुकुल बड़ा ही प्रसिद्ध था! जहाँ दूर दूर से बालक शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे।

राधे गुप्त की पत्नी का देहांत हो चुका था! उनकी उम्र भी ढलने लगी थी! घर में विवाह योग्य एक कन्या थी – जिसकी चिंता उन्हें हर समय सताती थी! पण्डित राधे गुप्त उसका विवाह ऐसे योग्य व्यक्ति से करना चाहते थे- जिसके पास सम्पति भले न हो पर बुद्धिमान हो।

एक दिन उनके मन में विचार आया! उनहोंने सोचा कि क्यों न वे अपने शिष्यों में ही योग्य वर की तलाश करें!
ऐसा विचार कर उन्होंने बुद्धिमान शिष्य की परीक्षा लेने का निर्णय लिया!

उन्होंने सभी शिष्यों को एकत्र किया और उनसे कहा-*मैं एक परीक्षा आयोजित करना चाहता हूँ!
इसका उद्देश्य यह जानना है कि कौन सबसे ज्यादा बुद्धिमान है।

मेरी पुत्री विवाह योग्य हो गईं है और मुझे उसके विवाह की चिंता है! लेकिन मेरे पास पर्याप्त धन नहीं है!
इसलिए मैं चाहता हूँ कि सभी शिष्य विवाह में लगने वाली सामग्री एकत्र करें! भले ही इसके लिए चोरी का रास्ता क्यों न चुनना पड़े! लेकिन सभी को एक शर्त का पालन करना होगा! शर्त यह है कि किसी भी शिष्य को चोरी करते हुए कोई देख न सके।

अगले दिन से सभी शिष्य अपने अपने काम में जुट गये! हर दिन कोई न कोई न कोई शिष्य अलग अलग तरह की वस्तुएं चुरा कर ला रहा था और गुरूजी को दे रहा था! राधे गुप्त उन वस्तुओं को सुरक्षित स्थान पर रखते जा रहे थे! क्योंकि परीक्षा के बाद उन्हें सभी वस्तुएं उनके मालिक को वापिस करनी थी।

परीक्षा से वे यही जानना चाहते थे कि कौन सा शिष्य उनकी बेटी से विवाह करने योग्य है!
सभी शिष्य अपने अपने दिमाग से कार्य कर रहे थे!

लेकिन उनमें से एक छात्र रामास्वामी, जो गुरुकुल का सबसे होनहार छात्र था, चुपचाप एक वृक्ष के नीचे बैठा कुछ सोच रहा था।

उसे सोच में बैठा देख राधे गुप्त ने कारण पूछा!
रामास्वामी ने बताया कि आपने परीक्षा की शर्त के रूप में कहा था कि चोरी करते समय कोई देख न सके!
लेकिन जब हम चोरी करते हैं, तब हमारी अंतरात्मा तो सब देखती है! हम खुद से उसे छिपा नहीं सकते!
इसका अर्थ यही हुआ न कि चोरी करना व्यर्थ है।

उसकी बात सुनकर राधे गुप्त का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा! उन्होंने उसी समय सभी शिष्यों को एकत्र किया और उनसे पूछा- आप सबने जब चोरी की तो क्या किसी ने आपको देखा?

सभी ने इनकार में सिर हिलाया!

तब राधे गुप्त बोले – बच्चों ! क्या आप अपने अंतर्मन से भी इस चोरी को छुपा सके?

इतना सुनते ही सभी बच्चों ने सिर झुका लिया! इस तरह गुरूजी ने अपनी पुत्री के लिए योग्य और बुद्धिमान वर मिल गया! उन्होंने रामास्वामी के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया! साथ ही शिष्यों द्वारा चुराई गई वस्तुएं उनके मालिकों को वापिस कर बड़ी विनम्रता से क्षमा मांग ली!
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ज्ञान प्राप्त लोगों के लिय यह बात समझना ज्यादा आसान इसलिय हो जाता है कि महाराजी ने हमको प्रत्यक्ष बोध कराया कि तुम्हारा असली मित्र तो तुम्हारे ही अन्दर है!

इसलिय हमें हमेशा अपने हृदय की आवाज को सुनना जरुरी है क्योंकि वही हमारे हर कर्म का साक्षी है!
जिसके माध्यम से हमें सुख-दुःख भोगना होगा!
प्रकृति का नियम यही है कि कर्म हमेशा अपने कर्ता का पीछा करता है!
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