आत्म-दर्शी” व “आत्म-अन्वेषक

*”आत्म-दर्शी” व “आत्म-अन्वेषक”*
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आज मनुष्य अपने शरीर निर्वाह के लिए, परिवार पालन के लिए ऊंची से ऊंची लौकिक शिक्षा प्राप्त करता है। परंतु अलौकिक शिक्षा से आत्मा को पुष्ट और पवित्र करने का विचार नहीं करता क्योंकि वह अपने आत्मिक अस्तित्व के बारे में जानता ही नहीं।

*जो शिक्षा मनुष्य को चरित्रवान बनाए! उसे उसके अन्दरस्थित शक्ति से जोड़कर संसार में सुख शांति की स्थापना में सहयोगी बनाए! उसे ही वास्तविक शिक्षा कहा जा सकता है।*

सर्वोत्तम शिक्षा वह है जिससे *आत्मा प्रकाशमान हो! शरीर शक्तिमान हो और कर्म सुखदाई हो!*

*ऐसी शिक्षा ही युग परिवर्तन का आधार है।*

सन 1921 में नोबेल पुरस्कार से नवाजे गए महानतम वैज्ञानिक आइंस्टाइन जब जीवन के अंतिम पड़ाव पर थे! तब एक अमेरिकी पत्रकार ने उनसे पूछा, *”सर आप की अंतिम इच्छा क्या है? अगर पुनर्जन्म लिया तो आप क्या बनना पसंद करेंगे?*

कुछ देर सोच विचार कर आइंस्टाइन बोले, *मैंने बहुत बड़े-बड़े आविष्कार किए! दुनिया मेरा लोहा मानती है। ना जाने कितने सत्यों व तथ्यों की खोज करने में मैंने अपना सारा जीवन लगाया!* लेकिन अब मुझे महसूस हो रहा है कि *मैं तो खाली हाथ जा रहा हूं। *”मैं इस सब खेल को रचाने वाले सर्वश्रेष्ठ आविष्कारक के बारे में सोच भी नहीं सका। आत्म-परमात्म तत्व को नहीं जान पाया क्योंकि मेरा ध्यान उस तरफ कभी गया ही नहीं।”*

अब तो प्रभु से यही प्रार्थना है कि *अगले जन्म में मैं आत्म-दर्शी, आत्म-अन्वेषक संत बनूं ताकि जीवन का तथा उस परम शक्ति के तथ्यों का साक्षात्कार कर सकूं।*
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