जीवन में सच्चे गुरु की सार्थकता

महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कहांँ जा रहे हो और किस मार्ग से जा रहे हो।
महत्वपूर्ण यह है कि जो जा रहा है, वह कौन है?
स्वयं को जानने से ही परमानन्द की मन्जिल मिलती है।
जिसने स्वयंँ को नहीं जाना – वह कितने ही शास्त्र, कितने ही सिद्धान्त और कितनी ही ज्ञान कुन्जी लेकर चलता रहे, उसके पैर सत्य के रास्ते पर नहीं पड़ेंगे, गलत रास्ते पर ही पड़ते रहेंगे।
बिना जाने जब वह चलता है तो डगमगाता है इसलिए उसके चलने के साथ ज्ञान कुन्जी भी डगमगाएगी।
पूर्ण गुरु शिष्य को एक ही दिशा की तरफ इशारा करते हैं कि जागो और स्वयंँ को जानो।
इसलिए जागकर स्वयंँ को जानना महत्वपूर्ण है और जानने की पहली शर्त यह है कि मैं कुछ भी नहीं जानता।
पूर्ण गुरु से ज्ञान लेकर लोग इतने अकड़े हुए हैं कि वे स्वयंँ को महाज्ञानी मान बैठे हैं और इसी से उनका चित्त भरा हुआ है।

उनसे पूछो कि क्या तुम स्वांँसों के पूर्ण सत्य को जानते हो?
तो उनका उत्तर होता है – हांँ थोड़ा-थोड़ा जानता हूंँ और यह थोड़ा-थोड़ा जानना ही धोखा है।

स्वांँसों के भीतर की शक्ति को खन्ड में नहीं बांँटा जा सकता। सत्य को या तो पूरा जाना जाता है और या बिल्कुल भी नहीं जाना जा सकता। कोई यह नहीं कह सकता कि मैं थोड़ा-थोड़ा जागा हूंँ या थोड़ा-थोड़ा सोया हूंँ। जो हृदय में उतरता है तो पूरा उतरता है और नहीं उतरता तो बिल्कुल नहीं उतरता, वही स्वांँसों के भीतर की शक्ति का पूर्ण सत्य है।

इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि सच्चे गुरु से ज्ञान नहीं लेना चाहिए।

इसका अर्थ है कि सच्चे गुरु से ज्ञान लेकर ध्यान के अभ्यास से स्वयंँ को शून्य करना चाहिए।
तभी स्वांँसों के भीतर प्रवेश करने के लिए जगह मिलेगी।
जिज्ञासु उसे कहते हैं – जो थोड़ा जानता है, थोड़ा और जानने को उत्सुक है तथा जानकारी की खोज में है।

जिज्ञासु यानी विद्यार्थी। शिष्य विद्यार्थी नहीं है, वह सत्यार्थी है। शिष्य जानकारी की खोज में नहीं निकला है, शिष्य स्वयं को जानने की खोज में निकला है। शिष्य होने की पहली शर्त यह है कि जिसने समर्पण स्वीकार कर लिया हो। जिसने सच्चे गुरु के चरणों में सिर रख दिया और कहा कि मैं कुछ भी नहीं जानता हूंँ! जिसने अपने मन के साथ अपनी बुद्धि की जानकारी भी सब गुरु के चरणों में रख दी, वही सीखने व जानने को कुशल होता है।

जिस पल वह अभ्यास से अपने भीतर भरी हुई सारी जानकारी से स्वयं को खाली कर लेता है – उसी पल ही स्वांँसों के भीतर की शक्ति उसे जगाकर हृदय के द्वार पर ले जाती है। तब शिष्य का पहला कदम हृदय द्वार की चौखट पर पड़ता है। तभी जीवन में सच्चे गुरु की सार्थकता का ज्ञान होता है।

  • श्री हंस जी महाराज



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